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[समराइच्चकहा
भणियं-देव, एसो त्ति । कुमारेण भणियं --अलं दोण्हमेयमेतेणं; ता अन्नं पि देहि ति । धणदेवेण भणियं-जं देवो आणवेइ । विम्हिया चित्तमइभूसणा, चितियं च हिं—'अहो उदारया आसयस्स' । निवडिऊण चलणेसु नेयावियं नियमावासं । एत्थंतरम्मि समागओ मज्झण्हसमओ। पढ़ियं कालनिवेयएण
मज्झत्थो च्चिय पुरिसो होइ दढं उवरि सवलोयस्स। एवं कहयंतो विय सूरो नहमज्झमारूढो ॥६७७।। वारविलासिणिसत्थो तुरियं देवस्स मज्जणनिमित्तं ।
हक्खुत्तकणयकलसो मज्जणभूमि समालियइ ॥६७८॥ एवं सोऊण उट्टिओ कुमारो, गओ मज्जणभूमि। मज्जिओ अणेहिं गंधोदएहि । कयं करगिज नसेसं । रयण वइसाहिलासो य ठिओ विचित्तसयणिज्जे। चितियं च णेणं । अहो से रूवं संखायणनरिंदधूयाए। कन्नया य एसा । ता अविरुद्धो संपओओ इमीए ति। चितयंतस्स समागया
भणितम्-देव ! एतदिति । कुमारेण भणितम्--अल द्वयोरेतन्मात्रेण, ततोऽन्यदपि देहीति । धनदेवेन भणितम् - यद देव आज्ञापयति । विस्मितो चित्रमति भूषणौ। चिन्तितं च ताभ्याम् - अहो उदारताऽऽशयस्य । निपत्य चरणयोायितं निजमावासम् । अत्रान्तरे समागतो मध्याह्नसमयः। पठितं कालनिवेदकेन -
मध्यस्थ इव पुरुषो भवति दृढमुपरि सर्वलोकस्य । एवं कथयन्निव सूरो नभोमध्यमारूढः ।। ६७७ ॥ वारविलासिनीसार्थस्त्वरितं देवस्य मज्जननिमित्तम् ।
उत्क्षिप्तकनककलशो मज्जनभूमि समालियते ॥ ६७८ ।। एवं श्रुत्वोत्थितः कुमारः, गतो मज्जनभूमिम् । मज्जितोऽनेकैर्गन्धोदकैः । कृतं करणीयशेषम् । रत्नवती पाभिलाषश्च स्थितो विचित्र-शयनीये। चिन्तितं च तेन–अहो तस्या रूपं शाङ्खायननरेन्द्रदुहितु: । कन्या चैषा, ततोऽविरुद्धः सम्प्रयोगोऽनयेति । चिन्तयतः सम गताऽऽस्थानिकावेला। स्थित
यह एक लाख है ?' धनदेव ने कहा--'महाराज ! यह एक लाख है !' कुमार ने कहा-'इन दोनों को इतना-सा देना ठीक नहीं है अत: इतना ही और दे दो।' धन देव ने कहा-'महाराज की जैसी आज्ञा ।' चित्रमति और भूषण विस्मित हुए । उन दोनों ने सोचा--भावों की उदारता आश्चर्यमय है ! दोनों (चित्रकार) चरणों में पड़कर धन को अपने डेरे पर ले गये।
इसी बीच मध्याह्न समय आया। समय का निवेदन करनेवाले ने कहा
'मध्यस्थ पुरुष के समान दृढ़तापूर्वक सब लोक के ऊपर होता है' ऐसा कहता हुआ मानो सूर्य आवाश के मध्य में आरूढ़ हो गया है। वारांगनाएँ महाराज के स्नान के लिए सुवर्ण कलशों को उठाकर शीघ्र ही स्नानभूमि को जा रही हैं । ६७६-६७॥
यह सुनकर कुमार उठा, स्नानभूमि में गया, अनेक प्रकार की गन्ध से युक्त जल में स्नान किया। शेष कार्यों को किया और रत्नवती की अभिलाषा सहित विचित्र शय्या पर बैठ गया। उसने सोचा-उस शांखायन राजा की पुत्री का रूप आश्चर्यमय है। चूंकि यह कन्या (कुंवारी) है अत: इसके साथ संयोग विरुद्ध नहीं है--
१. हवखुत्त (दे.) उत्क्षिरता, उत्पाटितः ।
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