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अट्ठमो भवो ]
अत्थाइयावेला | ठिओ अत्थाइयाए । समागया विसालबुद्धिप्पमुहा वयंसया - पत्थुओ चित्तयम्मवि
ओ | आलिहिओ कुमारेण सुविहत्तुज्जलेणं वण्णयकम्मेण अलविखज्जमार्णोह गुलियावह अणुरूवाए सुमहाए पयडदंसणेण निन्नुन्नयविभाएणं विसुद्धाए वट्टणाए उचिएणं भूसणकलावेणं अहिणवनेहसुयत्तणं परोप्परं हासुप्फुल्लबद्धदिट्ठी आरूढपेम्मत्तणेणं लंघिओचियनिवेसो विज्जाहरसंघाडओ ति । एत्थंतरम्मि समागया चित्तमइभूसणा । दिट्ठो य णेहिं गुलिया वावडग्गहत्थो तं चैव विज्जाहर संघाडयं पुलोएमाणो कुमारो त्ति । पण मिऊण सहरिसं भणियं च णेहि-देव, किमेयं ति । ओईसि विहसियसनाहं निरूवेह तुम्भे सयमेव' त्ति भणिऊण समप्पिया चित्तवट्टिया । निरूविया चित्तमभूहि । विहिया एए । भणियं च हि- अहो देवस्स सव्वत्य अप्पडियं परमेसरत्तणं । देव, अन्वा एसा चित्तयम्मविच्छित्ती साहेइ विय नियभावं फुडवयणेहिं । चित्तयस्मे देव, दुक्करं भावाराहणं । पसंतिय इणमेव एत्थ आयरिया । अहिणवनेहसुयत्तणेण वि य परोप्परं हासुप्फुल्ल
दित्ति तहा आरूढपेम्मत्तणेण वि य लंघिओचियनिवेसयं च एत्थ असाहियं पि देव जाणंति आस्थानिकायाम् । समागता विशालबुद्धिप्रमुखा वयस्याः । प्रस्तुतश्चित्रकर्मविनोदः । आलिखितः कुमारेण सुविभक्तोज्ज्वलेन वर्णककर्मणाऽलक्ष्यमाणैर्गुलिकाव्रजैरनुरूपया सूक्ष्मरेखया प्रकटदर्शनेन निम्नोन्नतविभागेन विशुद्धया वर्तनया उचितेन भूषणकलापेन अभिनवस्ने हो त्सुकत्वेन परस्परं हास्योत्फुल्ल बद्ध दृष्टि रारूढप्रेमत्वेन लङ्घितोचितनिवेशो विद्याधरसङ्घाटक इति । अत्रान्तरे समागतौ चित्रमतिभूषणौ । दृष्टश्च ताभ्यां गुलिकाव्यापृताग्रहस्तस्तमेव विद्याधरसङ्घाटकं प्रलोकयन् कुमार इति । प्रणम्य सहर्षं भणितं च ताभ्याम् - देव ! किमेतदिति । तत ईषद्विहसितसनाथं 'निरूपय तं युवां स्वयमेव' इति भणित्वा समर्पिता चित्रपट्टिका । निरूपिता चित्रमतिभूषणाभ्याम् । विस्मितावेतौ । भणितं च ताभ्याम् - अहो देवस्य सर्वत्राप्रतिहतं परमेश्वरत्वम् । देव ! अपूर्वेषा चित्रकर्मविच्छित्तिः कथयतीव निजभावं स्फुटवचनैः । चित्रकर्मणि देव ! दुष्करं भावाराधनम् । प्रशंसन्ति चेदमेवात्त्राचार्याः | अभिनवस्नेहोत्सुकत्वेनापि च परस्परं हास्योत्फुल्ल बद्धदृष्टित्वं तथाऽऽरूढप्रेमत्वेनापि च लङ्घितोचितनिवेशकं चात्राकथितमपि देव ! जानन्ति बालका अपि,
ऐसा विचार कर रहा था कि सभा का समय हो गया। सभा में बैठा । विशालबुद्धि प्रमुख मित्र आये । चित्रकर्म का विनोद प्रस्तुत हुआ 1 कुमार ने एक विद्याधर का जोड़ा चित्रित किया । भलीभाँति विभाग होने के कारण वह उज्ज्वल था, रँगाई के कारण गुलिकाएँ (रँगाई का एक विशेष द्रव्य) दिखाई नहीं पड़ रही थीं, अनुरूप सूक्ष्म रेखाएँ थीं। उसके निम्न और उन्नत विभाग प्रकट रूप से दर्शित हो रहे थे । रंगों से विशुद्ध था, उचित आभूषणों के समूह से युक्त था, नूतन स्नेह व उत्सुकता के कारण परस्पर हास्य के विकास से जिनकी दृष्टि बँधी हुई थी, प्रेमारूढ़ता के कारण जिसमें योग्य सन्निवेश को भी लंघित कर दिया गया था। इसी बीच चित्रमति और भूषण दोनों आ गये। उन दोनों ने गुलिका (रँगाई का एक विशेष द्रव्य) में जिसकी हथेलियाँ व्याप्त थीं, ऐसे कुमार को उसी विद्याधर के जोड़े को देखते हुए देखा । प्रणाम कर हर्षपूर्वक उन दोनों ने कहा- 'महाराज, यह क्या !' तब मुस्कुराकर, 'तुम दोनों स्वयं देखो' - ऐसा कहकर चित्रपट समर्पित कर दिया । चित्रमति और भूषण ने देखा । उन दोनों ने कहा- 'ओह ! महाराज का परमेश्वरपना सब जगह बेरोक-टोक है। महाराज ! यह अपूर्व चित्रकर्म की रचना स्पष्ट वचनों में अपने भावों को कह रही है। महाराज ! चित्र बनाने में भावों की आराधना करना कठिन है। चित्रकला में आचार्य लोग इसी की प्रशंसा करते हैं। नये स्नेह की उत्सुकता होने पर भी परस्पर हास्य के विकास से बद्ध दृष्टिवाले तथा प्रेम में आरूढ़ होने पर भी लंघन के योग्य सजावट को
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