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[समराइच्चकहा
बालया वि, किमंग पुण इयरे जणा । एवं च देव चित्तसत्थे पढिज्जइ। जहा विणा चरियाइणा अहियारेण जहा कहंचि किल जारिसयभावजतं चित्तयम्म निष्फज्जइ, तारिसयभावसंपत्ती नियमेण चित्तयारिणो। ता देव, आसन्नो देवस्स पियदसणेणं ईइसो भावो त्ति निवेइयं देवस्स । ईसि विहसियं कुमारण। एत्यंतरम्मि समागओ संझासमओ। पढियं कालनिवेयएण--
संझाए बद्धराओ व्व दिणयरो तरियमसिहरम्मि। संकेयगठाणं पिव सुरगिरिगंजं समल्लियइ ॥६७६॥ वित्थरइ कुसुमगंधो अणहं दिज्जंति मंगलपईवा।
पूइज्जइ रइणाहो रामाहि रमणभवणेसु ॥६८०॥ एयमायण्णिऊण 'गुरुचलणवंदणासमओ' ति उदिओ कुमारो, गओ जणणिजणयाण सयासं। वदिया तेसि चलणा। बहुमन्निओ हिं । ठिओ कंचि कालं गुरुसमीवे। उचियसमएणं च गओ वासगेहं । अणसरंतस्प्त रयणवईस्व वोलिए उचियसमए समागया निद्दा । पहायसमए य दिढोणेण
किमङ्ग पुनरितरे जनाः। एवं च देव ! चित्रशास्त्रे पठ्यते, यथा विना चरितादिना अधिकारेण यथाकथञ्चित् किल यादृशभावयुक्तं चित्रकर्म निष्पद्यते तादृशभावसम्पत्तिनियमेन चित्रकारिणः । ततो देव ! आसन्नो देवस्य प्रियदर्शनेन ईदृशो भाव इति निवेदितं देवस्य । ईषद् विहसितं कुमारेण। अत्रान्तरे समागतः सन्ध्यासमयः । पठित कालनिवेदकेन--
सन्ध्यायां बद्धराग इव दिनकररत्वरितमस्त शिखरे । संकेतस्थानमिव सुरगिरिकुजं समालीयते ।। ६७६ ।। विस्तीर्यते कुसुमगन्धोऽनघं दीयन्ते मङ्गलप्रदीपाः ।
पूज्यते रतिनाथो रामाभी रमणभवनेषु ॥ ६८० ॥ एवमाकर्ण्य 'गुरुचरणवन्दनासमयः' इत्युत्थितः कुमारः, गतो जननीजनकयोः सकाशम । वन्दितौ तयोश्चरणो। बहुमतस्ताभ्याम् । स्थित: कञ्चित् कालं गुरुसमीपे । उचितसमयेन च गतो वासगेहम् । अनुस्मरतो रत्नवतीरूपं व्यतिक्रान्ते उचितसमये समागता निद्रा। प्रभातसमये च महाराज, बिना कहे बालक भी जानते हैं, दूसरे मनुष्यों की तो बात ही क्या है। महाराज ! चित्रशास्त्र में ऐसा पढ़ा जाता है कि चरितादि अधिकार के बिना जो कुछ, जसे भावों से युक्त चित्रकर्म प्रकट होता है, वैसी भावसम्पत्ति निश्चित रूप से चित्रकार की होती है । अतः महाराज ! महाराज के प्रियदर्शन से ऐसा भाव आया इसलिए महाराज से निवेदन किया।' कुमार कुछ मुस्कुराया।
इसी बीच सन्ध्या का समय आया । समयनिवेदकों ने पढ़ा
सन्ध्या के प्रति राग में बद्ध हुए के समान सूर्य शीघ्र ही अस्ताचल के शिखर पर सुमेरुपर्वत के कुंजों में लीन हो रहा है, निष्पाप फूलों का गन्ध फैल रहा है, मंगल दीपक जलाये जा रहे हैं, रमणभवनों में स्त्रियों द्वारा कामदेव की पूजा की जा रही है ॥ ६७६-६८०॥
यह सुनकर 'माता-पिता के चरणों की वन्दना का समय है'-ऐसा कहकर कुमार उठा। माता-पिता के पास गया। उन दोनों के चरणों की वन्दना की। दोनों ने सम्मान दिया। कुछ समय तक माता-पिता के पास बैठा । उचित समय पर निवासगृह गया । रत्नवती के रूप का स्मरण करते हुए उचित समय बीत जाने
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