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________________ अटठमो भवो ] ६८३ सुमिणओ । जहा किल उवणीया केणावि सोमरूवेण दिव्वकुसुममाला । भणियं च णेण -- अहिमया एसा कुमारस्स; ता गिण्हउ इमं कुमारो । गहिया य णेण, घेत्तूण निहिया कंठदेसे । एत्यंतर म्म पहयाई पाहाउयतूर । इं । विउद्धो कुमारो । पढियं कालनिवेयएण-अह निण्णा सितिमिरो विओर्याविहुराण चक्कवायाण । संगमकरणेrरसो वियम्भिओ अरुण किरणो हो ॥ ६८१ ॥ पवियसियकमलवयणा महयरगुंजतबद्धसंगीया । पण 'पत्तहत्था जाया सुहदंसणा नलिणी ॥ ६८२ ॥ एयं सोउण हरिसिओ चित्तेण । चितियं च णेण - भवियव्वं रयणवईलाहेण । न एस सुमिणओ अन्नहा परिणमइ, उववू हिओ पाहाउयतरेणं, नियमिओ मंगलसद्देहि, पहाए य दिट्ठो । ता आसन्नफलेण इमिणा होयव्वं ति । चितिऊण उट्ठिओ सयणीयाओ, कयं गुरुचलणवंदणाइआवस्यं । ठिओ अस्थाइयाए । समागया विसालबुद्धिप्पमुहा वयंसया । समारद्धा गूढच उत्थयगोट्ठी । पढियं दृष्टस्तेन स्वप्नः । यथा किलोपनीता केनापि सौम्यरूपेण दिव्यकुसुममाला । भणितं च तेनअभिमतैषा कुमारस्य, ततो गृह्णात्विमां कुमारः । गृहीता चानेन, गृहीत्वा निहिता कण्टदेशे । अत्रान्तरे प्रतानि प्राभातिकतर्याणि । विबुद्धः कुमारः । पठितं कालनिवेदकेन -- अथ निर्णाशिततिमिरो वियोगविधुराणां चक्रवाकानाम् । सङ्गमकरणैकरसो विजृम्भितोऽरुण किरणौघः ॥ ६८१ ।। प्रविकसितकमलवदना मधुकरगुञ्जद्बद्धसङ्गीता | पवनधुतपत्रहस्ता जाता शुभदर्शना नलिनी ॥ ६८२ ॥ एवं श्रुत्वा हर्षितश्चित्तेन । चिन्तितं च तेन - भवितव्यं रत्नवतीला भेन । नैष स्वप्नोऽन्यथा परिणमति, उपबृंहितः प्राभातिकतूर्येण, नियमितो मङ्गलशब्दः प्रभाते च दृष्टः । तत आसन्न - फलेनानेन भवितव्यमिति । चिन्तयित्वोत्थितः शयनीयात्, कृतं गुरुचरणवन्दनाद्यवश्यकम् । स्थित आस्थानिकायाम् । समागता विशालबुद्धिप्रमुखा वयस्याः । समारब्धा गूढचतुर्थक गोष्ठी । पठितं पर नींद आ गयी । प्रातःकाल उसने स्वप्न देखा कि कोई सौम्य रूपवाला दिव्य फूलों की माला लाया और उसने कहा- यह कुमार के अनुरूप है, अतः कुमार इसे ग्रहण करें । इसने ग्रहण किया (और) लेकर गले में डाल ली । तभी प्रातःकालीन वाद्य बजने लगे। कुमार जागा । समयनिवेदक ने पढ़ा- अब अन्धकार को नाश करने वाला, वियोग से पीड़ित चकवों के मिलाने में एकरस अरुण की किरणों का समूह बढ़ गया है। विकसित कमलमुखवाली, गुंजार करते हुए भौंरों से बद्ध संगीतवाली और वायु के द्वारा हिलाये गये पत्ते रूपी हाथोंवाली कमलिनी (अब) शुभ दर्शनवाली हो गयी है ।।६८१-६८२ ।। यह सुनकर ( उसका ) चित्त हर्षित हुआ और उसने सोचा- रत्नवती की प्राप्ति होनी चाहिए । प्रातःकालीन वाद्यों से ( बढ़ाया गया), मंगल शब्दों से नियमित किया गया और प्रातःकाल देखा गया यह स्वप्न अन्यथा परिणमित नहीं होता है, अतः इस स्वप्न का फल निकट होना चाहिए माता-पिता के चरणों की वन्दना आदि आवश्यक कार्य किये। सभा में आकर ऐसा सोचकर शय्या से उठा । बैठा । विशालबुद्धि प्रमुख मित्र १. - धुयपल्ल वकरा पा. ज्ञा. । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
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