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________________ ६८४ विसालबुद्धिणा । सुरयमणस्स रइहरे नियंबभमिरं बहु धुयकरग्गा । तक्खणवृत्तविवाहा । कुमारेण भणियं - पुणो पढति । पढियं विसालबुद्धिणा । तओ कुमारेण ईसि विहसिऊण भणियं - वरयस्स करं निवारेइ | विसालबुद्धिणा भणियं - अहो देवेण लद्धं ति । चित्तमइणा पढियं । भावियरइसाररसा समाणिउं मुक्कबहल सिक्कारा । न तरइ विवरीयरयं । कुमारेण भणियं - पुणो पढसुति । पढियं चित्तमणा । लद्धं कुमारेण । भणियं च णेण - 'नियंबभारालसा सामा' । भूसणेण पढियं । विउलम्मि मउलिच्छी घणवीसम्भस्स सामली' सुइरं । विवरीयसुरयसुहिया । कुमारेण भणियंपढति । पढियं भूसणेण । लद्ध कुमारेणं । भणियं च णेण - वीसमइ उरम्मि रमणस्स । विशाल बुद्धिना । [समराइच्च कहा सुरतमनसो रतिगृहे नितम्बभ्रमन्तं वधू धुतकराग्रा । तत्क्षणवृत्तविवाहा । कुमारेण भणितं - पुनः पठेति । पठितं विशालबुद्धिना । ततः कुमारेण ईषद् विहस्य भणितम्- 'वरस्य करं निवारयति' । विशालबुद्धिना भणितम् - अहो देवेन लब्धमिति । चित्रमतिना पठितम् - भावित रतिसाररसा भुक्त्वा मुक्त हलसीत्कारा । न शक्नोति विपरीतरतम् । कुमारेण भणितम् - पुनः पठेति । पठितं चित्रमतिना । लब्धं कुमारेण । भणितं च तेन - 'नितम्बभारालसा श्यामा' । भूषणेन पठितम् - विपुले मुकुलिताक्षिर्घनविश्रम्भस्य श्यामा सुचिरम् । विपरीतसुरतसुखिता । कुमारेण भणितम् - पुनः पठेति । पठितं भूषणेन । लब्धं कुमारेण । भणितं च तेन - 'विश्राम्यत्युरसि' रमणस्य' । आये । गूढ़ चतुर्थक गोष्ठी आरम्भ हुई। विशाल बुद्धि ने पढ़ा - 'कामदेव के रतिगृह में नितम्ब को घुमाती हुई वधू हथेलियों को कँपा रही है । तभी विवाह हो गया ।' कुमार ने कहा - 'फिर से पढ़ो।' विशालबुद्धि ने पढ़ा। अनन्तर कुमार ने कुछ हँसकर कहा - ' वर के हाथ को रोक रही है ।' सुरयमणस्स रइहरे नियंबभमिरं वहु धुयकरग्गा । तक्खणवृत्तविवाहा 'वरयस्स करं निवारेइ' ।। विशालबुद्धि ने कहा- 'आश्चर्य है, महाराज ने पा लिया !' चित्रमति ने पढ़ा- 'अनुभूत रति के साररूप रस का भोग कर अत्यधिक सी-सी आवाज छोड़ती हुई, विपरीत ति नहीं कर सकती ।' कुमार ने कहा - 'पुनः पढ़ो।' चित्रमति ने पढ़ा। कुमार ने पा लिया ( समझ लिया और उसने कहा - 'नितम्ब के भार से अलसायी हुई युवती अर्थात् उपर्युक्त विशेषणों से युक्त 'नितम्ब के भार से अलसायी हुई युवती' विपरीत रति नहीं कर सकती । भावियरइसाररसा समाणिउं मुक्कवहल सिक्कारा । न तरइ विवरीयरयं 'णियंबभारालसा सामा' ॥ भूषण ने पढ़ा- 'विस्तृत नेत्रों को मूंदकर देर तक अत्यधिक विश्राम कर विपरीत सम्भोग से सुखी ।' कुमार ने कहा - 'पुन: पढ़ो ।' भूषण ने पढ़ा । कुमार ने पा लिया - 'पति के वक्षःस्थल पर विश्राम करती है ।' विउलम्मि मउलियच्छी घणवीसम्भस्स सामली सुइरं । विवरीय सुरयसुहिया 'वीसमइ उरम्मि रमणस्स' । Jain Education International १. सामिणि - डे, ज्ञा । २ विपरीतसुरतसुखिता मुकुलिताक्षि: श्यामा धनविश्रम्भस्य रमणस्य विपुले उरसि सुचिरं विश्राम्यति । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
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