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अट्टमो भवो ]
एवं च जाव कंचि वेलं चिट्ठति, तावागंतूण निवेइयं पडिहारेण । कुमार, आसपरिवाहणनिमितं वाहालि उट्टो देवो कुमारं सद्दावेइ त्ति । कुमारेण भणियं-जं ताओ आणवेइ त्ति । उऊण परियणसमेओ निग्गओ भवणाओ । आरूढो जच्च वोल्लाह; मिलिओ रायमग्गे नरवइस्स, गवाया । वाहिया बहवे वल्हीय तुरुक्कवज्जराइया आसा । उचियसमएण पविट्ठो नयर ।
करणिज्जसे । एवं च विसिविगोएण सह चित्तमइभूसणेहि अइच्छिया कवि दिया। अन्नया काऊ रयणवई रुव गुणकित्तणं निब्भरुक्कंठापराहीणयाए अच्छंतलालसेणं तीए दंसणम्मि एवं पिताव पेच्छामि' त्ति समत्थिऊण निययहियएणं समालिहिया चित्तवट्टियाए रयणवई । पुलोइया सिणेहसारं अणि मिसलोयणेण लिहिया य हिट्ठे गाहा -
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हियए वि ठियं बालं पेच्छह दिट्ठ पि चित्तयम्ममि । इच्छइ तहावि दट्ठ समूसुओ अंतरप्पा मे ॥ ६८३ ॥ एत्यंत रम्मि समागया चित्तमइभूसणा । 'कुमारवल्लह' त्ति न धरिया पडिहारण । पविट्ठा
एवं च यावत् काञ्चित् वेलां तिष्ठन्ति तावदागत्य निवेदितं प्रतीहारेण कुमार ! अश्वपरिवाहननिमित्तं वाह्यालि प्रवृत्तो देवः कुमारं शब्दाययति इति । कुमारेण भणितम् - यत् तात आज्ञापयतीति । उत्थाय परिजनसमेतो निर्गतो भवनात् । आरूढो जात्यवोल्लाहम् । मिलितो राजमार्गे नरपतेः गतो वाह्यालिम् । वाहिता बहवो वालीकतुरुष्कवज्जरादिका अश्वाः । उचितसमयेन प्रविष्टो नगरीम् । कृतं करणीयशेषम् । एवं च विशिष्टविनोदेन सह चित्रमतिभूषणाभ्यां गताः कत्यपि दिवसाः । अन्यदा च कृत्वा रत्नवतीरूपगुणकीर्तनं निर्भरोत्कण्ठापराधीनतया अत्यन्तलालसेन तस्या दर्शने 'एवमपि तावत्प्रेक्षे' इति समर्थ्य निजहृदयेन समालिखिता चित्रपट्टि - कायां रत्नवती । प्रलोकिता स्नेहसारमनिमिषलोचनेन । लिखिता चाधो गाथा -
हृदयेऽपि स्थितां बालां पश्यत दृष्टामपि चित्रकर्मणि ।
इच्छति तथापि द्रष्टुं समुत्सुकोऽन्तरात्मा मे ॥ ६८३ ॥
अत्रान्तरे समागतौ चित्रमतिभूषणौ । 'कुमारवल्लभौ' इति न धृतौ प्रतीहारेण । प्रविष्टो
इस प्रकार जब कुछ समय बीत गया तब द्वारपाल ने आकर निवेदन किया- 'कुमार ! घोड़े को चलाने के लिए अश्वशाला में गये हुए महाराज कुमार को बुला रहे हैं।' कुमार ने कहा- 'महाराज की जैसी आज्ञा ।' उठकर परिजनों के साथ भवन से निकला । नवीन वोल्लाह अश्व पर सवार हुआ। राजमार्ग पर राजा से मिला, अश्वशाला में गया । बहुत से बाल्हीक, तुरुष्क, वज्जरादिक घोड़े चलाये। उचित समय पर नगर में प्रविष्ट हुआ । शेष कार्यों को किया । इस प्रकार चित्रमति और भूषण दोनों के साथ कुछ दिन बीत गये। एक बार रत्नवती के गुणों का कीर्तन कर अत्यधिक उत्कण्ठा से पराधीन होने के कारण तथा उसके दर्शन की अत्यधिक लालसा होने से - 'अच्छा, यह भी देखता हूँ' - ऐसा अपने मन से समर्थन कर चित्रपट्टिका पर रत्नवती चित्रित कर दी । (उसे) स्नेह से भरे हुए निर्निमेष नेत्रों से देखा और नीचे गाथा लिख दी -
'देखो, हृदय में स्थित युवती को चित्र में भी देख लिया तो भी मेरी उत्सुक अन्तरात्मा (प्रत्यक्ष ) देखने की इच्छा कर रही है ।' ॥६८३ ॥
इसी बीच चित्रमति ओर भूषण आये । ये दोनों कुमार के प्रिय हैं, अतः द्वारपाल ने नहीं रोका। दोनों
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