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[समराइच्चकहा
कमारसमीवं । दिवा चित्तवट्टिया। 'देव, किमेयं ति जंपियमणेहि । ईसि हसिऊण भणियं कुमारणतुम्भं वयपडिच्छंदयालिहणं ति । तेहि भणियं-देव, महापसाओ ति। तओ घेतूण निरूविया चित्तवट्टिया। विम्हिया एए। वाचिया गाहा। चितियं च हि-धन्ना खु सा रायधूया, जा कुमारणावि एवं बह मन्निज्जइ । अहवा किमेत्थ अच्छरियं, विसओ खु सा एवंविहाए बहमाणणाए। ता इमं एत्थ पत्तयालं, जं सिग्यमेव एवं देवीए निवेइज्जइ ति चितिऊण भणियं चित्तमइणा-देव, अउम्वो एस पडिच्छंदओ। अहो इयमेत्थ अच्छरियं, जमदि8 पि नाम एवमाराहिज्जइ! भसणेण भणियं - देव, एरिसा चेव सा रायधूया, न किचि अन्नारिसं। धन्ना य सा, जा देवेण एवं बहु मन्निज्जइ।
एत्यंतरम्मि पविट्ठो पडिहारो । भणियं च ण - कुमार, समागओ देवसंतिओ विस्सभूई नाम गंधविओ कुमारदसणसुहमणुहविउमिच्छ।। कुमारेण भणियं- 'पविसउ त्ति। गओ पडिहारो। पविटो विस्सभूई। पणमिऊण कुमारं भणियं च जेण-देवो आणवेइ। 'अस्थि अम्हाणं पत्थुए गंधववियारे सरे विन्भमो त्ति; तमागंतूणमवणेउ कुमारो'। तओ ईसि विहसिऊण जंपियं कुमारण। कुमारसमीपम् । दृष्टा चित्रपट्टिका। ‘देव ! किमेतद्' इति जल्पितमाभ्याम् । ईषद् हसित्वा भणितं कुमारेण-युवयोवृतप्रतिच्छन्दालेखनमिति । तैर्भणितम्-देव ! महाप्रसाद इति । ततो गृहीत्वा निरूपिता चित्रपट्टिका । विस्मितावेतो। वाचिता गाथा । चिन्तितं च ताभ्याम् । धन्या खलु सा राजदुहिता, या कुमारेणप्येवं बहु मन्यते । अथवा किमत्राश्चर्यम्, विषयः खलु सा एवंविधबहुमाननायाः । तत इदमत्र प्राप्तकालम्, यच्छीघ्रमेवैतद् देव्यै निवेद्यते इति चिन्तयित्वा भणितं चित्रमतिना-देव ! अपूर्व एष प्रतिच्छन्दकः । अहो इदमत्राश्चर्यम्. यददृष्टमपि नाम एवमाराध्यते । भूषणेन भणितम-देव ! ईदृश्येव सा राजदुहिता, न किञ्चिदन्यादृशम् । धन्या च सा, या देवेनैवं बहु मन्यते।
अत्रान्तरे प्रविष्टः प्रतीहारः । भणितं च तेन- कमार ! समागतो देवसत्को विश्वभूतिर्नाम गान्धर्विक: कुमारदर्शनसूखमनुभवितुमिच्छति । कुमारेण भणितम्-'प्रविशतु' इति । गतः प्रतीहारः । प्रविष्टो विश्वभूतिः। प्रणम्य कुमारं भणितं च तेन-'देव आज्ञापयति, अस्त्यस्माकं प्रस्तुते गान्धर्वविचारे स्वरे विभ्रम इति, तमागत्यापनयतु कुमारः। तत ईषद् विहस्य जल्पितं कुमारेण - अहो कुमार के पास प्रविष्ट हुए। दोनों ने चित्रपट्टिका को देखा। 'महाराज ! यह क्या है ?' ऐसा उन दोनों ने कहा । कुछ मुस्कराकर कुमार ने कहा-'आप दोनों के बनाये हुए चित्र के समान चित्र है।' उन्होंने कहा'महाराज ! आपकी बड़ी कृपा।' अनन्तर लेकर चित्रपट्टिका देखी। ये दोनों विस्मित हुए । गाथा बांची । उन दोनों ने सोचा -वह राजपुत्री धन्य है, जिसे कुमार भी इस प्रकार सम्मान देते हैं । अथवा इसमें आश्चर्य क्या है, वह इस प्रकार के सम्मान की विषय है। तो अब समय आ गया है कि शीघ्र ही इसे महारानी से निवेदन करें। ऐसा सोचकर चित्रमति ने कहा ----'देव ! यह अपूर्व प्रतिलिपि है। ओह ! यह बड़ा आश्चर्य है कि न देखे हुए की भी इस प्रकार आराधना हो रही है ।' भूषण ने कहा - 'महाराज ! वह राजपुत्री ऐसी ही है, किसी और तरह की नहीं। वह धन्य हैं, जिन्हें महाराज भी इस प्रकार सम्मान देते हैं ?'
इसी बीच द्वारपाल प्रविष्ट हुआ। उसने कहा-'कुमार ! महाराज का विश्वभूति नाम का गायक आया हुआ है । कुमार के दर्शनसुख का अनुभव करने की इच्छा कर रहा है।' कुमार ने कहा-'प्रवेश करे।' द्वारपाल चला गया। विश्वभूति ने प्रवेश किया और कुमार को प्रणाम कर बोला-'महाराज आज्ञा देते हैं कि संगीत के विषय में हम लोगों को स्वर का भ्रम है, उसे कुमार आकर दूर करें।' अनन्तर कुछ हँसकर कुमार ने कहा
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