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अट्ठमो भवो] अहो तायस्स अवच्चम्मि बहुमाणो। विस्सभूइणा भणियं - कुमार, गुणा एत्थ बहुमाणहेयवो, न अवच्चमेतं । चित्तमइभूसणेहि भणियं -एवमेयं, सयलगुणपगरिसो कुमारो ति। तओ 'जं ताओ आणवेइ' ति मणिऊण उढिओ कुमारो, गओ नरिंदभवणं ।। ___इयरे वि चित्तमइभूसणा विम्हिया कुमारविन्नाणाइसएण गया सभवणं । भणिओ य चित्तमई भूसणेण - अरे चित्तमइ, संपन्नमम्हाण समीहियं । ता इमं एत्थ पत्तयालं । आलिहिऊण जहाविन्नाणविहवेण कुमाररूवं असंसिऊण कुमारस्स दुयं गच्छम्ह, जेण दळूण कुमारस्वाइसयं चिय इमस्स विन्नाणाइसयं च देवी लहुं संजोएइ रायधूयं कुमारेण सह। एवं च कए समाणे सा चेव रायधूया सयलगुणसंजुया महादेवी संजायइ ति। वित्तमइणा भणियं-अरे भूसणय, संसिऊण कुमारस्स गच्छंताणं को दोसो ति। भूसणेण भणियं-अरे पत्थुविधाओ, जओ न पेसेइ लहुं अम्हे कुमारो ति। चितमइणा भणियं - अरे अस्थि एयं, ता एवं करम्ह । आलिहिओ कुमारो। तओ घेत्तण तं कुमारालिहियचित्तट्टियादुयं च घेत्तूण निग्गया अओज्झाओ। गया कालक्कमेण संखउरं । पविट्ठा निययभवणेसु। बीयदियहे य गया देवीभवणं । दिट्ठा हि देवी। साहिओ धणुव्वेयगुणणाइओ तातस्यापत्ये बहुमानः । विश्वभूतिना भणितम् - कुमार ! गुणा अत्र बहुमानहेतवः, नापत्यमात्रम् । चित्रमतिभूषणाभ्यां भणितम् - एवमेतद्, सकलगुणप्रकर्षः कुमार इति। ततो 'यत तात आज्ञापयति' इति भणित्वोत्थितः कुमारः, गतो नरेन्द्रभवनम् ।
इतरावपि चित्रमतिभूषणो विस्मिती कुमारविज्ञानातिशयेन गतौ स्वभवनम् । भणितश्च । चित्रमतिषणेन - अरे चित्रमते ! सम्पन्नमावयोः समीहितम् । तत इदमत्र प्राप्तकालम् । आलिख्य यथाविज्ञानविभवं कुमाररूपमशंसित्वा कुमारस्य द्रुतं गच्छावः, येन दृष्ट्वा कुमाररूपातिशयमेवास्य विज्ञानातिशयं च देवो लघु संयोजयति राजदुहितरं कुमारेण सह । एवं च कृते सति सैव राजदुहिता सकलगुणसंयुता महादेवी सजायते इति । चित्रमतिना भणितम्-अरे भूषणक ! शंसित्वा कुमारं गच्छतोः को दोष इति । भूषणेन भणितम्-अरे ! प्रस्तुतविधातः, यतो न प्रेषयति लघु आवां कुमार इति । चित्रमतिना भणितम - अरे अस्त्येतद्, तत एवं कुर्वः। आलिखितः कुमारः । ततो गृहीत्वा तं कुमारालिखितचित्रपट्टिकाद्विकं च गृहीत्वा निर्गतावयोध्यायाः । गतो कालक्रमेण शङ्खपुरम् । प्रविष्टौ निजभवनेषु । द्वितीय दिवसे च गती देवीभवनम् । दृष्टा ताभ्यां देवी। कथितो
'ओह ! पिताजी का अपनी सन्तान के प्रति सम्मान । विश्वभूति ने कहा--'महाराज ! गुण ही यहाँ पर सम्मान के कारण हैं, सन्तान मात्र नहीं।' चित्रमति और भूषण ने कहा-'सच है, कुमार में समस्त गुणों की चरमसीमा है।' अनन्तर पिताजी की जैसी आज्ञा' कहकर कुमार उठ गया, राजभवन में गया।
चित्रमति और भषण भी कुमार के ज्ञान की अधिकता से विस्मित होकर अपने भवन को चले गये। चित्रमति से भषण ने कहा---'चित्रमति ! हम दोनों का इष्टकार्य सम्पन्न हो गया। तो अब समय आ गया है। वैभव और ज्ञान के अनुरूप कुमार के रूप का चित्रण कर कुमार से बिना कहे ही दोनों शीघ्र चलें, जिससे इस कुमार के रूप की इस अतिशयता और ज्ञान को अतिशयता को देखकर महारानी राजपुत्री को शीघ्र ही कुमार से मिला दें। ऐसा करने पर वह राजपूत्री समस्त गणों से युक्त महादेवी हो जाएंगी।' चित्रमति ने कहा-'हे भूषणक ! कुमार से कहकर जाने में क्या दोष है ?' भूषण ने कहा-'अरे ! विघ्न आ जायेगा; क्योंकि हम दोनों को कुमार शीघ्र नहीं भेजेंगे।' चित्रमति ने कहा- 'यह ठीक है, अतः ऐसा (ही) करें।' कुमार का चित्र बनाया। अनन्तर उसे और कूमार के द्वारा बनायो हई चित्रपद्रिका (दोनों) को लेकर वे दोनों अयोध्या से निकल पड़े। दोनों कालक्रम से शंखपुर पहुँचे । अपने भवनों में प्रविष्ट हुए और दूसरे दिन महारानी के भवन में
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