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[समराइच्चकहा
गंधवसरसंसयावणोयणपज्जवसाणो कुमारसंतिओ सयलवुत्तंतो। दंसिओ से कुमारो कुमारालिहियचित्तवट्टियादुयं च । तओ सपरिओसं निरूविऊण कुमाररूवं कलाकोसल्लं च परितुट्ठा एसा । दवावियं चित्तमइभूसणाण पारिओसियं । पुणो वि निरूविओ कुमारो देवीए। चितियं च णाए-अहो से रूवसंपया, अहो अवस्थागगरुओ संठाणविसेसो। तओ अइसयकोउएण अजायसंतोसाए' कुमारदसणस्स निरूवियाओ अन्नाओ वि चित्तवट्टियाओ। 'अहो से रूवपगरिसाणुरूवो विन्नाणपगरिसो' त्ति विम्हिया देवी। वाचिया य णाए सा धूयापडिच्छदयहेतुओ कुमारलिहिया गाहा। हरिसिया चित्तेण । चितियं च तीए-धन्ना खु मे धूया जा कुमारेण एवमहिलसोयइ। पेसिओ य णाए मयणमंजुयाहत्थम्मि कुमारपडिच्छंदओ रयणवईए। भणिया य एसा–हला, भणाहि मे जायं, जहा लहुं एवं सिक्खेहि । गया मयणमंजुया। दिवा रयणवई। उवणीया चित्तवट्टिया। भणियं रयणवईए-हज्जे किमेयं ति । तीए भणि-भट्टिदारिए, पेसिओ खु एस पडिच्छंदओ देवीए, आणत्तं च तीए, जहा लहुं सिक्खाहि एयं ति। रयणवईए भणियं-हला, को उण एस आलिहिओ। धनुर्वेदगणनादिको गान्धर्वस्वरसंशयापनोदनपर्यवसानः कुमारसत्क: सकलवृत्तान्तः । दशितस्तस्याः कमार: कुमारा लिखितचित्रपट्टकाद्विकं च। ततः सपरितोषं निरूप्य कुमाररूपं कलाकौशल्यं च परितुष्टैषा। दापितं चित्रमतिभूषणाभ्यां पारितोषिकम् । पुनरपि निरूपितः कुमारो देव्या। चि न्ततं च तया-अहो तस्य रूपसम्पद्, अहो अवस्थानगुरुकः संस्थानविशेषः । ततोऽतिशयकौतुकेनाजातसन्तोषया कुमारदर्शनस्य निरूपितेऽन्येऽपि चित्रपट्टिके । 'अहो तस्य रूपप्रकर्षानुरूपो विज्ञानप्रकर्षः' इति विस्मिता देवी। वाचिता च तया सा दुहितप्रतिच्छन्दकाधः कुमारलिखिता गाथा। हर्षिता चित्तेन । चिन्तितं च तया-धन्या खल मे दुहिता, या कुमारेणैवमभिलष्यते। प्रेषितश्च तया मदनमञ्जुलाहस्ते कुमारप्रतिच्छन्दको रत्नवत्याः। भणिता चंषा सखि ! भण मे जाताम, यथा लघ्वेतं शिक्षस्व । गता मदनमञ्जला। दृष्टा रत्नवती । उपनीता चित्रपट्टिका । भणितं रत्नवत्या --- सखि ! किमेतदिति । तया भणितम् - भत दारिके ! प्रेषितः खल्वेषः प्रतिच्छन्दको देव्या, आज्ञप्तं च तया, यथा लघ शिक्षस्वैतमिति । रत्नवत्या भणितम् – सखि ! कः पुनरेष आलिखितः । गये । उन दोनों ने महारानी के दर्शन किये। धनुर्वेद के गुण से लेकर संगीतशास्त्र के अनुसार स्वर के विषय में संशय हो जाने पर उसके दूर करने तक का कुमार का वृत्तान्त कहा। महारानी को कुमार का चित्र और कुमार के द्वारा बनायी हुई चित्रपट्टिका को दिखाया। अनन्तर सन्तोष के साथ कुमार के रूप और कलाकौशल को देखकर यह सन्तुष्ट हुई। मित्रमति और भूषण को पारितोषिक दिलाया । महारानी ने कुमार को पुन: देखा और उसने सोचा---कुमार की रूपसम्पति आश्चर्यजनक है । ओह, कितनी जबर्दस्त आकृति विशेष है ! अत्यधिक कौतूहल के कारण जिसे सन्तोष नहीं हुआ है ऐसी महारानी ने कुमार के दर्शन सम्बन्धी दूसरी मी चित्रपट्टिका देखी। उसके रूप की चरमसीमा के अनुरूप ज्ञान का प्रकर्ष है-ऐसा सोचकर महारानी विस्मित हुई। महारानी ने पुत्री के चित्र के नीचे कुमार के द्वारा लिखी हुई वह गाथा बाँची। चित्त से हर्षित हुई और उसने सोचा-मरी पुत्री धन्य है जो कि कगार के द्वारा इस प्रकार अभिलषित है । उसने (महारानी ने) मदनमंजुला के हाथ कुमार का चित्र रत्नवती के पास भेजा और कहा---'सखी ! मेरी पुत्री से कहो कि शीघ्र ही इसका अभ्यास करो।' मदन मंजुला चली गयी। रत्नवती को देखा। चित्रपदिका लायी। रत्नवती ने कहा -- 'सखी! यह क्या है ?' उसने कहा- इस चित्र को देवी ने भेजा है और उन्होंने आज्ञा दी है-शीघ्र ही इसका अभ्यास करो।' रत्नवती ने कहा-'यह
१. संजायमंतोसाएडे. ज्ञा. । २. धुयाडि- । ३, -मसिल सीयइतिज्ञा ।
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