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अठमो भवो ]
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मंजुयाए भणियं न याणामि निस्संसयं । एत्तियं पुण तक्केमि, एस भयवं पुरंदरो। रयणवईए भणियं - हला, सहस्सलोयण दूसिओ खु एसो सुणीयइ । मयणमंजुयाए भणियं - जइ एवं; ता नारायणो । रयणवईए भणियं - हला, सो वि न एवं कणयावयायच्छवी । मयणमंजुयाए भणियंजइ एवं ता सव्वजण मणाणंदयारी चंदो । रयणवईए भणियं-हला, न सो वि एवं निक्कलंको । मयणमंजुयाए भणियं - ता कामदेव भविस्सइ । रयणवईए भणियं - हला, कुओ तस्स वि हु हरहुंकार हुयवहसिहापयं गयस्स ईइसो लायण्णसोहावयारो । मयणमंजुयाए भणियं - जइ एवं, ता यमेव निरूds भट्टिदारिया । तओ चिरं निज्झाइओ रयणवईए । भणियं च णाए - हला, तक्केमि न एस अमाणुसो । जओ पवड्ढमाणवयविसेसस्स पुव्वरूवं पिव इमं लक्खीयइ, अवट्ठियवयविसेसा य अमाणुस । तहा निमेसोचियं इमस्स निद्धं लोयणजुयलं, अणिमिसं च एयममाणुसणं । मयण मंजुयाए भणियं - सुठ जाणियं भट्टिदारियाए । एवमेयं, न संदेहो त्ति । अहं पुणतक्कमि, भट्टिदारियाए चेव एसो वरो भविस्सइ । एत्थंतरम्मि नियकज्ज संगयं जंपियं सिद्धाएसपुरोहिए -- को एत्थ संदेहो, असंसयं भविस्सs | एवं सोऊण हरिसिया रयणवई भणियं
मदनमञ्जुलया भणितम् - न जानामि निःसंशयम् । एतावत् पुनः तर्कयामि, एष भगवान् पुरन्दरः । रत्नवत्या भणितम् — सखि ! सहस्रलोचनद्धितः खल्वेष श्रूयते । मदनमञ्जुलया भणितम् -- यद्येवं ततो नारायणः । रत्नवत्या भणितम् - सखि ! सोऽपि नैवं कनकावदातच्छविः । मदनमञ्जुलया भणितम् - यद्येवं ततः सर्वजनमन आनन्दकारी चन्द्रः । रत्नवत्या भणितम् - सखि ! न सोऽप्येव निष्कलङ्कः । मदनमञ्जुलया भणितम् ततः कामदेवो भविष्यति । रत्नवत्या भणितम् - सखि ! कृतस्तस्यापि खलु हरहुङ्कारहुतवहशिखापदं गतस्येदृशो लावण्यशोभावतारः । मदनमञ्जुलया भणितम्– यद्येवं ततः स्वयमेव निरूपयतु भर्तृदारिका । ततश्चिरं निध्यातो ( अवलोकितः ) रत्नवत्या । भणितं च तया - सखि ! तर्कयामि नैषोऽम नुषः । यतो प्रवर्धमानवयोविशेषस्य पूर्वरूपमिवेदं लक्ष्यते, अवस्थितवयोविशेषः श्चामानुषाः । तथा निमेषोचितमस्य स्निग्धं लोचनयुगलम्, अनिमिषं चेतदमानुषाणाम् । मदनमञ्जुलया भणितम् - सुष्ठु ज्ञातं भर्तृदारिकया, एवमेतद् न सन्देह इति । अहं पुनः तर्कयामि, भर्तृ दारिका या एवैष वशे भविष्यति । अत्रान्तरे निजकार्यसङ्गतं जल्पितं सिद्धादेश पुरोहितेन । कोऽत्र सन्देहः, असंशयं भविष्यति । एतच्छ ुत्वा हर्षिता रत्नवती ।
कौन चित्रित हैं ?' मदनमंजुला ने कहा---' निश्चित रूप से नहीं जानती हूँ । पुनः यह सोचती हूँ कि यह भगवान् इन्द्र हैं ।' रत्नवती ने कहा - 'सखी ! इन्द्र तो हजार नेत्रों से दूषित हैं, यह सुना जाता है ।' मदनमंजुला ने कहा - 'यदि ऐसा है तो नारायण हैं।' रत्नवती ने कहा- 'उनकी भी इस प्रकार स्वर्ण के समान उज्ज्वल छवि नहीं है ।' मदनमंजुला ने कहा- 'यदि ऐसा है तो समस्त लोगों के मन को आनन्द देनेवाला चन्द्र है ।' रत्नवती ने कहा - ' वह भी इस प्रकार निष्कलंक नहीं ।' मदनमंजला ने कहा- 'तो कामदेव होगा ।' रत्नवती ने कहा'शिव की हुंकार से अग्नि की ज्वाला में जल गये हुए उस कामदेव के लावण्य - शोभा का ऐसा अवतार कहाँ ?" मदन मंजुला ने कहा - यदि ऐसा है तो स्वामिपुत्री, स्वयं ही देखिए ।' अनन्तर रत्नवती ने बहुत देर तक देखा । उसने कहा 'सखी! (मैं) सोचती हैं, यह अमानुष नहीं है; क्योंकि अवस्था विशेष से बढ़ता हुआ यह पूर्वरूप-सा दिखाई देता है; जबकि अमानुषों की अवस्था विशेष स्थिर रहती है। तथा इसका सुन्दर नेत्रयुगल निमेष योग्य है; जबकि अमानुष निमेषरहित होते हैं।' मदनमंजुला ने कहा- 'स्वामिपुत्री ने ठीक जाना, यह ऐसा ही है, इसमें सन्देह नहीं । पुनः मैं अनुमान करती है कि यह स्वामिपुत्री का ही वर होगा।' इस बीच अपने कार्य में लगे हुए सिद्धान दि पुरोहित में कहा - ' ही prevent इति ई
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