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________________ ६६० [समराइच्चकहा मयणमंजयाए भट्टिदारियाए सुयं सिद्धाएसक्यणं । तओ हरिसपराहीणयाए ईसि विहसिएण बहु मन्निऊण तीए वयणं समारद्धा पुलोइउं । भणिया य चित्तसुंदरी--हला, उवणेहि मे चित्तट्टियं वट्टियासमग्गयं च, जेण संपाडेमि अंबाए सासणं ति। 'जं भट्टिदारिया आणवेइ' त्ति जंपिऊण संपाडियपिणं चित्तसंदरोए। समारद्धा एसा समालिहिउं। तओ महया अहिणिवेसेण निरूविउं पुणो पुणो तहारूवो चेवालिहिओ तीए पडिच्छंदओ। भणिया य मयणमंजया-हला, उवणेहि एयमंबाए. भणाहि य अंबं 'किमेस आराहिओ न व' ति। मयणमंजुयाए भणियं-जं भट्टिदारिया आणवेइ । गया मयणमंजुया। विन्नत्ता य णाए देवी-भट्टिणि, भट्टिदारिया रयणवई विन्नवेइ 'निरूवेह एयं चित्तपडिच्छंदयं, किमेस आराहिओ न व' ति। समप्पिया चित्तवट्टिया, गहिया देवीए। निरूविऊण चितियमिमीए-अहो मे ध्याए चित्तयम्मचउरत्तणं। सोहणयरो ख एसो पडिग्छंदयाओ। आणाधिया य जाए कुमारलिहिया रयणवइचित्तवट्टिया, आसन्नीकया कुमारपडिच्छंदयस्स, जाव 'अच्चताणुरूवं मिहुणयंति हरिसिया देवी। भणियं च णाए-हला मयणमंजुए, भणाहि मे जायं, जहा सुठ्ठ आराहिओ, अन्नं च; सव्वकालमेव तुमं एयाराहणपरा भणितं मदनमञ्जुलया - भत दारिक या श्रुत सिद्धादेशवचनम् ? ततो हर्षपराधीनतया ईषद विहसितेन बहु मत्वा तस्या वचनं समारब्धा प्रलोकितम् । भणिता च चित्रसुन्दरी सखि ! उपनय मे वित्रपट्टिको वर्तिकासमुद्ग के च, येन सम्पादयाम्यम्बाया: शासनमिति । 'यद् भर्तृ दारिकाऽऽज्ञापयति' इति जल्पित्वा सम्पादितमिदं चित्रसुन्दर्या । समारब्धषा समालिखितुम्। ततो महताऽभिनिवेशेन निरूप्य पुनः पुनस्तथारूप एवालिखितस्तया प्रतिच्छ दकः । भणिता च मदनमञ्जला, सखि ! उपनयैतमम्बाया:, भण चाम्बा 'किमेष आराधितो न वा' इति । मदनमञ्जलया भणितमयद् भर्तृदारिकाऽऽज्ञापयति । गता मदनमजला । विज्ञप्ता च तया देवी-भट्टि नि ! भर्त दारिका रत्नवती विज्ञपयति 'निरूपयतं वित्रप्रतिच्छन्दकं , किमेष आराधितो न वा' इति । समर्पिता चित्रपट्टिका, गृहीता देव्या । निरूप्य चिन्तितमनया-अहो मे दुहितुश्चित्रकर्मचतुरत्वम् । शोभनतर: खल्वेष प्रतिच्छन्दकात् । आनायिता च तया कुमारलिखिता रत्नवतीचित्रपट्टिका, आसन्नीकृता कुमारप्रतिच्छन्दकस्य, यावद् ‘अत्यन्तानुरूपं मिथुनकम्' इति हर्षिता देवी । भणितं च तया-सखि मदनमञ्जुले ! भण मे जाताम्, यथा सुष्ठु आराधितः । अन्यच्च सर्वकालमेव त्वमेतदाराधनपरा मंजुला न स्वाभिपुत्री से कहा- सिद्धादेश के वचनों को सुना?' अनन्तर हर्ष से पराधीन होकर कुछ मुस्कराकर उसके वचनों का आदर कर देखने लगी और चित्रसुन्दरी से बोली-'सखी ! मेरे लिए चित्रपट्टिका और कुची का डिब्बा ले आओ; जिससे माता की आज्ञा पूरी करूं।' 'जो स्वामिपुत्री आज्ञा दें' - ऐसा कहकर इसे चित्रसुन्दरी ने पूर्ण किया। स्वामिपुत्री ने चित्र बनाना आरम्भ कर दिया। अनन्तर बड़ी एकाग्रता से पूनः पुनः देखकर उसी का चित्र बना दिया और मदनमंजला से कहा --- 'सखी! इसे माता जी के पास ले जाओ और उनसे पूछो कि इसमें सफलता पायी या नहीं ?' मदनमंजुला ने कहा---'स्वामिपुत्री जैसी आज्ञा दें।' मदनमजला चली गयी और महारानी से निवेदन किया - 'स्वामिनि ! स्वामिपुत्री रत्नवती निवेदन करती हैं कि इस चित्र के सादश्य को देखो, इसमें सफलता मिनी अथवा नहीं?' ऐसा कहकर चित्रपट्टिका समर्पित कर दी। महारानी ने ले ली। देखकर उस (महारानी) ने सोचा- 'ओह मेरी पुत्री की चित्रकारी में कुशलता ! यह (उस) चित्र से भी अधिक सुन्दर है। उसने कुमार के द्वारा चित्रित रत्नवती वाली चित्रपट्टिका मंगायी और कुमार के चित्र के समीप रखा। जोड़ा अत्यन्त अनुरूप था, अतः महारानी हर्षित हुई और उसने कहा- 'सखी मदनमंजला ! मेरी पुत्री से कहो कि बहुत अच्छी सफलता प्राप्त की। दूसरी बात यह है कि सब समय तुम इसकी आराधना में रत होओ' -- यही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
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