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________________ अट्ठमो भवो] ६६१ हवेज्जसु त्ति; एयं च ते पारिओसियं, तुम पि एएण एवं चेवाराहिय ति; निरूवेहि एयस्स चित्तकोसल्लं ति । भणिऊण समप्पियं से चित्तवट्टियादुयं । 'जं मए वियप्पियं, तं तह' त्ति हरिसिया मयणमंजुया। गया रयणवईसमीवं । भणियं च णाए-भट्टिदारिए, परितुट्टा ते देवी; भणियं च णाए, जहा सुठ्ठ आराहिओ त्ति । पेसियं च ते पारिओसियं। तं पुण न अन्नपारिओसियप्पयाणमंतरेण समप्पिउं जुज्जइ। रयणवईए भणियं-हला, देस्सामि ते पारिओसियं । पेच्छामि ताव, कि पुण अंबाए पेसियं पारिओसियं । मयणमंजुयाए भणियं-जं भट्टिदारिया आणवेइ। उवणोया से कुमारलिहिया चित्तवट्टिया। दिट्ठा 'रयणवईए। चितियं च णाए-हंत अहं पिव एत्थ आलिहिय ति। भणियं च णाए -हला मयणमंजुए, किमेयं ति। तीए भणिय-भट्टिदारिए, देवीए जहा सुठ्ठ आराहिओ ति आणवेऊण पुण इमं आणतं; "अन्नं च, सव्वकालमेव तुमं एयाराहणपरा हवेज्जासु त्ति; एयं च ते पारिओसिय; तुम पि एएण एवं चेवाराहिय त्ति निरूवेहि एयस्स चित्तकोसल्लं ति," तहा जं मए तक्कियं, 'भट्टिदारियाए एसो वरो हविस्सइ,' तं तह त्ति तक्केमि । भवेरिति, एतच्च ते पारितोषिकम् । त्वमपि एतेनैवमेवाराधितेति, निरूपयतस्य चित्रकौशल्यमिति। भणित्वा समर्पितं तस्याश्चित्रपट्टिकाद्विकम् । 'यन्मया विकल्पितं तत्तथा' इति हर्षिता मदनमञ्जुला। गता रत्नवतीसमीपम् । भणितं च तया- भर्तृदारिके ! परितुष्टा ते देवी, भणितं च तया, यथा सुष्ठ आराधित इति । प्रषितं च ते पारितोषिकम् । तत्पुनर्नान्यपारितोषिकप्रदानमन्तरेण समपितुं युज्यते । रत्नवत्या भणितम् – सखि ! दास्यामि ते पारितोषिकम् । प्रेक्षे तावत् किं पुनरम्बया प्रेषितं पारितोषिकम । मदनमञ्जुलया भणितम्- यद् भर्तृदारिकाऽऽज्ञापयति । उपनीता तस्याः कुमारलिखिता चित्रपट्टिका । दृष्टा रत्नवत्या । चिन्तितं च तया-हन्त अहमिवात्रालिखितेति । भणितं च तया-सखि मदनमञ्जुले ! किमेतदिति । तया भणितम्भर्तृ दारिके ! देव्या यथा सुष्ठु आराधित इत्याज्ञाप्य पुनरिदमाज्ञप्तम्, अन्यच्च सर्वकालमेव त्वमेतदाराधनपरा भवेरिति, एतच्च ते पारितोषिकम्, त्वमप्येतेनैवमेवारा धितेति निरूपयेतस्य चित्रकौशल्यमिति । तथा यन्मया तकितं 'भत दारिकाया एष वरो भविष्यति' तत्तथेति तकंयामि । मेरा तुम्हारे लिए पारितोषिक है। तुम भी इसी से ही इस प्रकार सफल हो गयी। देखो इसकी चित्रकला की कुशलता।' ऐसा कहकर उसे दोनों चित्र पट्टिकाएँ दे दी। 'जो मैंने सोचा था वह वैसा ही हुआ'-- इस प्रकार मदनमंजुला हर्षित हुई। (वह) रत्नवती के पास गयी। उसने कहा---'स्वामिपुत्री ! आप पर महारानी प्रसन्न हैं। उन्होंने कहा है कि आपने अच्छी सफलता पायी और आपको पारितोषिक भेजा है। उसे अन्य पारितोषिक दिये बिना देना टीक नहीं है।' रत्नवती ने कहा - 'सखी ! मैं तुम्हें पारितोषिक दूंगी। देखू, माता ने क्या पारितोषिक भेजा।' मदनमंजुला ने कहा -'स्वामिपुत्री जैसी आज्ञा दें।' उसने कुमार के द्वारा बनायी हुई चित्रपट्टिका उसके सामने रख दी। रत्नवती ने देखा और उसने सोवा हाय, मैं ही मानो यहाँ चित्रित की गयी हैं ! उसने कहा'सखी मदनमंजुला, यह क्या ?' उसने कहा-'स्वामिपुत्री ! महारानो ने 'बहुत अच्छी सफलता प्राप्त की'---ऐसा कहकर पुन: यह आज्ञा दी। दूसरी बात यह कि 'सदैव तुम इसकी आराधना में रत रहो - यह तुम्हारा पारितोषिक है, तुम भी इसी से सफल हो गयी। अतः इसकी चित्र कुशलता को देखो तथा जो मैंने सोचा था कि स्वामिपुत्री का यह वर होगा वह वैसा ही है-ऐसा मैं अनुमान करती हूँ।' तब अत्यन्त अभिलाषा युक्त होकर पुनः चित्र की १ रयणवईए निरूपिया य । दिउापुल्ललोयणाए चित्तबट्टियादुयं । चिनियं-- डे. ज्ञा. । २ सवियक क चितिऊण भणियं - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
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