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[ समराइच्चकहा तओ अच्चंतसाहिलासं पुणो चित्तपइगिई पुलोइय वाचिऊण य गाहं हरिसवसुव्वेल्लपुलयाए' जंपियं रयणवईए-हला मयणमंजुए, किमहं एसा आलिहिय त्ति अणुहरइ चित्तपइगिई। तओ अच्चंतं निरूविऊण भणियं मयणमंजुयाए । सुठ्ठ अणुहरइ ति। न नज्जइ, कि भट्टिदारिया आलिहिया, किं वा भट्टिदारियाए चेव एत्थ पडिबिबं संकेत ति । तओ हरिसिया रयणवई । भणियं च णाएको उण एसो भविस्सइ। मयणमंजुयाए भणियं - तक्कमि, कोइ महाणुभावो भट्टिदारियाणुराई सयलकलारयणायरो रायउत्तो भविस्सइ। रयणवईए भणियं-हला, म कयाइ अहमणेण दिट्ठा, ता कहं ममाणुराइ त्ति । मयणमंजुयाए भणियं-भट्टिदारिए, तक्केमि, तुम पि इमिणा एमेव चित्तयम्मगया दिट्ट ति। रयणवईए भणियं-- हला, कि चित्तयम्मगदिट्ठाए वि अणुराओ होइ? मयणमंजुयाए भगियं-होइ आगिइविसेसओ न उण सव्वत्थ। रयणवईए भणियं-कहं विय। मणयमंजुयाए भणियं-जहा भट्टिदारियाए इमम्मि । तओ ईसि विहसिऊण नीससियमिमीए। मयणमंजुयाए भणियं-सामिणि, मा संतप्प । 'अवस्सं सामिणो इमिणा संजुज्जई' ति साहेइ विय मे हिययं । रयणवईए चितियं--कुणो मे एत्तिया भागधेया। दुल्लहो खु चिंतामणी मंदउण्णाणं । ततोऽत्यन्तसाभिलाषं पुनश्चित्रप्रतिकृति प्रलोक्य वाचयित्वा च गाथां हर्षवशप्रसृतपुलकया जल्पितं रत्नवत्या सखि मदनमञ्जुले ! किमहमेषाऽऽलिखितेति अनुहरति चित्रप्रकृतिः। ततोऽत्यन्तं निरूप्य भणितं मदनमजलया--सुष्ठ अनुहरतीति । न ज्ञायते कि भर्तृ दारिकाऽऽलिखिता, किंवा भर्तृ दारिकाया एवात्र प्रतिबिम्ब संक्रान्तमिति । ततो हर्षिता रत्नवती। भणितं च तया-कः पुनरेष भविष्यति । मद समजलया भणितम्-तर्कयामि कोऽपि महानुभावो भत दारिकानुरागी सकलकलारत्नाकरो राजपुत्रो भविष्यति । रत्नवत्या भणितम्-सखि ! न कदाचिदहमनेन दष्टा, ततः कथं ममानुरागीति । मदनमञ्जुलया भणितम्-भर्तृ दारिके ! तर्कयामि, वमप्यनेन एवमेव चित्रकर्मगता दृष्टेति । रत्नवत्या णितम् - सखि ! कि चित्रकर्मगत दृष्टायामप्यनुरागो भवति ? मदनमञ्जलया भणितम्-भवत्याकृति विशेषतः, न पुनः सर्वत्र । रत्नवत्या भणितम-कथमिव ? मदनमञ्जलया भणितम्-यथा भर्तृ दारिकाया अस्मिन् । तत ईषद् विहस्य निःश्वस्तमनया। मदनमञ्जलया भणितम् - स्वामिनि ! मा सन्तप्यस्व, 'अवश्यं स्वामिनी अनेन संयुज्यते' इति कथयतोव मे हृदयम् । रत्नवत्या चिन्तितम्-कुतो मे एतावन्ति भागधेयानि । दुर्लभः खलु चिन्ता
प्रतिकृति देखकर और गाथा बाँचकर हर्षवश रोमांचित हो रत्नवती ने कहा-'सखी मदनमंजुला, यह मैं चित्रित की गयी हूँ ? चित्र की प्रतिकृति में ऐसा सादृश्य है ?' तब ध्यान से देखकर मदनमंजुला ने कहा-'एकदम सादृश्य है । स्वामिपुत्री चित्रित की गयी हैं अथवा स्वामिपुत्री का ही प्रतिबिम्ब इसमें आ गया है-यह नहीं ज्ञात होता है ।' तब रत्नवती हर्षित हुई। उसने कहा---'फिर यह कौन होगा?' मदनमंजुला ने कहा- 'अनुमान करती हूँ स्वामिपुत्री का अनुरागी, समस्त कलाओं का सागर कोई राजपुत्र होना चाहिए।' रत्नवती ने कहा'सखी ! इसने मुझे कभी नहीं देखा अत: कैसे मेरा अनुरागी है ?' मदनमंजुला ने कहा-'स्वामिपुत्री ! अनुमान करती हैं कि तुम्हें भी इसने इसी प्रकार चित्र में देखा।' रत्नवती ने कहा-'क्या चित्र में देखी हई के प्र अनुराग हो जाता है ?' मदनमंजुला ने कहा-'आकृतिविशेष से अनुराग हो जाता है, सब जगह नहीं।' रत्नवती ने कहा-'कैसे ?' मदनमंजुला ने कहा-'जैसे स्वामिनी का इस राजपुत्र के प्रति ।' तब मुस्कराकर इसने लम्बी सांस ली । मदनमंजुला ने कहा- 'स्वामिनि ! दुःखी मत होओ, अवश्य ही स्वामिनी इससे मिलेंगी, ऐसा मानो मेरा हृदय कह रहा है ।' रत्नवती ने सोचा--मेरे इतने भाग्य कहाँ ? मन्द पुण्यवालों के लिए चिन्तामणि दुर्लभ
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