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अट्ठमो भवो ]
६६३ एत्थंतरम्मि फुरियं से वामलोयणेणं, आयण्णिओ पुण्णाहघोसो। परिउट्ठा चित्तेणं। चितियं च णाए-अवि नाम एयमवि एवं हवेज्ज त्ति । एत्थंतरम्मि समागया पियमेलियाहिहाणा चेडी । भणियं च णाए-भट्टिदारिए, देवी आणवेइ, जहा 'आसन्ना भोयणवेला, ता आवस्सयं करेहि' ति। तओ 'जं अंबा आणवेइ' त्ति भणिऊण कुमारमणुसरंता' उठ्ठिया रयणवई । कयं गुरुदेवयाइयं निच्चयम्म । भत्तं च विहिणा । गहिओ कुमारपडिच्छंदओ। अहो सोहणो अंगविन्नासो, मणोहरा धीरललियया सलोणा दिट्ठी, अइप्पगब्भो भावो, अच्चुयारं सत्तं, गंभीरगरुओ अवत्थाणो। अहो ईइसो वि पुरिसविसेसो हवइ त्ति अच्छरियं । एवं च कुमारगुणुक्कित्तणपराए अइवकता कइवि वासरा।
इओ य तच्चित्तवट्टियादसणविणोएण कुमार गुणचंदस्प वि एवमेव ति। विन्नाओ य एस वइयरो कुओइ मेत्तीबलेण । 'उचिया चेव संखायणनरिंदधया कुमारस्स' ति चितिऊण पेसिया तेण तीए पहाणकोसल्लियसमेया पहाणवरगा।
मणिर्मन्द पुण्यानाम् । अत्रान्तरे स्फुरितं तस्या वामलोचनेन, आकणितः पुण्याहघोष: (मङ्गलशब्दः) । परितुष्ट' चित्तेन । चिन्तितं च तया-अपि नाम एतदपि एवं भवेदिति । अत्रान्तर समागता प्रियमेलिकाभिधाना चेटो। भणितं च तया-भदा रके ! देव्याज्ञापयति, यथा 'आसन्ना भोजनवेला, तत आवश्यकं कुरु' इति । ततो 'यदम्बाऽऽज्ञापयति' इति भणित्वा कुमारमनुस्मरन्त्युत्थिता रत्नवती । कृतं गुरुदेवादिकं नित्यकर्म । भुक्त च विधिना। गृहीतः कुमारप्रतिच्छन्दकः । अहो शोभनोऽङ्गविन्यासः, मनोहरा धोरललितका सलावण्या दृष्टिः, अतिप्रगल्भो भावः, अत्युदारं सत्त्वम्, गम्भीरगुरुकमवस्थानम् । अहो ईदृशोऽपि पुरुषविशेषो भवतीत्याश्चर्यम् । एवं च कुमारगुणोत्कीर्तनपराया अतिक्रान्ताः । त्यपि वासराः ।
___इतश्च तच्चित्रपट्टिकादर्शनविनोदेन कुमार गुणचन्द्रस्याप्येवमेवेति । विज्ञातश्चैष व्यतिकरः कुतश्चिद् मैत्रीबलेन । 'उचितैव शाङ्खायननरेन्द्रदुहिता कुमारस्य' इति चिन्तयित्वा प्रेषितास्तेन तस्यै प्रधानपाभूतसमेताः प्रधानवरकाः ।
है। इसी बीच उसकी बायीं आंख फड़की। मंगल शब्द सुनाई पड़ा। (वह) चित्त से सन्तुष्ट हुई और उसने सोचा- हो सकता है, इसकी भी ऐसी ही अवस्था हो । इसी बीच प्रियमेलिका नामक दासी आयी और उसने कहा-'स्वामिपुत्री ! महारानी आज्ञा देती हैं कि भोजन का समय समीप है, अत: आवश्यक कार्य करें।' तदनन्तर 'माता जी की जैसी आज्ञा'-ऐसा कहकर कुमार का स्मरण करती हुई रत्नवती उठी। गुरु-देव आदि सम्बन्धी नित्यकर्मों को किया और विधिपूर्वक भोजन किया। कुमार के चित्र को लिया । ओह, अंगों का विन्यास सुन्दर है। दृष्टि मनोहर, धीरललित और लावण्ययुक्त है। भाव अति प्रौढ़ है। सत्त्व अत्यन्त श्रेष्ठ है । आकृति गम्भीर और गौरवयुक्त है । ओह ! ऐसा भी पुरुष विशेष होता है ! आश्चर्य है। इस प्रकार कुमार के गुणों के कीर्तन में लगी हुई उसके कुछ दिन बीत गये।
इधर उस चित्रपट्टिका के दर्शन के विनोद से कुमार गुणचन्द्र की भी इसी प्रकार दशा हुई। कहीं से यह वृत्तान्त मैत्रीबल को ज्ञात हुआ। शांखायन राजा की पुत्री योग्य ही है-ऐसा सोचकर उसने उसके पास प्रधान उपहारों के साथ प्रमुख बहुमूल्य पात्रों को भेजा।
1. -णुसरंतीए कयं-डे. ज्ञा. पा. ज्ञा. । २. कोसल्लिय (दे.) प्राभृतम्, उपहार इति यावत् ।
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