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________________ ६६४ [ समराइच्चकहा इओ य कुमारपडिच्छंदयमेतदंसणपरा 'न एयमंतरेण अणबंधो मुणोयइ' ति उविग्गा रयणवई । परिचत्तमिमीए रायकन्नगोचियं करणिज्ज । तमद्धासिया अरईए, गहिया रणरणएणं, अंगीकया सुन्न पाए, पडिवन्ना वियारहि, ओत्थया मयण जरएण। तओ सा 'सीसं मे दुक्खइ' त्ति साहिऊण सहियणस्स उवगया सणिज्ज। तत्थ उण पवड्ढमाणाए वियंभियाए अणवरयमुव्वत्तमाणेणमगेणं आपंडुरएहि गंडपास रहि बप्फपज्जाउलाए दिवोए अलद्धासासवीसभ जाव थेववेलं चिट्ठइ, ताव हरिसवसुप्फुल्ललोयणा समागया मयणमंजुया । भणियं च णाए-भट्टिारिए, चिर जीवसु त्ति । पुण्णा ते मणोरहा। जं मए तक्कियं, तं तहेव जायं ति। रयणवईए भणियं-हला, कि तयं तक्कियं, किंवा तहेव जायं ति। भयणमंजमाए भणियं-भट्टिदारिए एयं तक्कियं, जहा एसो चित्तपडिच्छंदओ भट्टिदारियाए चेव वरो भविस्सइ त्ति, जाव तं तहेब जायं ति। तओ कडिसुत्तयं दाऊण भणियं रयणवईए -'हला, कहं विय'। मयणमंजुयाए भणियं-सुण। अस्थि अहं इओ भट्टिदारियासमोवाओ देवीसयासं गया, जाव पप्फुल्लवयणपंकया सह चित्तमइभूसहि मंतयंती इतश्च कुमारप्रतिच्छन्दकदर्शनपरा नैतदन्तरेण अनुबन्धो ज्ञायते' इत्युद्विग्ना रत्नवती। परित्यक्तमनया राजकन्यकोचितं करणीयम् । समयासिताऽरत्या, गृहीता रणरणकेन (औत्सुक्येन), अङ्गोकृता शून्यतया, प्रतिपन्ना विकारैः अवस्तृता मदनज्वरेण । ततः सा 'शीर्ष मे दुःखयति' इति कथयित्वा सखीजनस्योपगता शयनीयम् । तत्र पुन: प्रवर्धमानया विज़म्भिकयाऽनवरतमुद्वर्तमानेनाङ्गेन आपाण्डुराभ्यां गण्डपाश्र्वाभ्यां वाष्पपर्याकुलया दृष्ट्याऽलब्धाश्वासविश्रम्भं यावत् स्तोकवेलां तिष्ठति, तावद् हर्षवशोत्फुल्ललोचना समागता मदनमञ्जुला। भणितं च तया --- भर्तृ दारिके ! चिरं जीवेति । पूर्णास्ते मनोरथाः। यन्मया तर्कितं तत्तथैव जातमिति । रत्नवत्या भणितम्-हला ! कि तत्तर्कितम्, किं वा तथैव जातमिति । मदनमञ्जलया भणितम्भर्तृ दारिके ! एतत्तर्कितं यथैष चित्रप्रतिच्छन्दको भर्तृ दारिकाया एव वरो भविष्यतीति, यावत तत्तथैव जातमिति । ततः कटिसूत्रं दत्त्वा भणितं रत्नवत्या--'हला ! कथमिव' । मदनमञ्जलया भणितम् - शृणु। अस्म्यहम्तिो भर्तृ दारिकासमं पाद् देवीसकाशं गता, यावत्प्रफुल्लवदनपङ्कजा इधर कुमार के चित्र का दर्शन करने में संलग्न रत्नवती-'इसके बिना (कोई) सम्बन्ध ज्ञात नहीं होता'- यह सोचकर उद्विग्न हो गयी। उसने राजकन्या के योग्य कार्य को छोड़ दिया । (वह) अरति से अध्यासित हो गयी, उत्सुकता ने (उसे) ग्रहण कर लिया, शून्यता ने अंगीकार कर लिया। (वह) विकार को प्राप्त हुई, कामज्वर ने (उसे) ढक लिया । अनन्तर वह 'मेरा सिर दुःखता है'-ऐसा सखीजनों से कहकर शभ्या को प्राप्त हो गयी। वहाँ पर बार-बार जंभाई लेती, निरन्तर अंगों को हिलाती-डुलाती, कुछ-कुछ पीले गालों के प्रान्त भाग से युक्त, आँसुओं से व्याप्त नेत्रों वाली, श्वास के विश्राम को न प्राप्त कर जब थोड़ी देर बैठी हुई थी तभी हर्षवश, जिसके नेत्र विकसित थे ऐसी, मदनमंजुला आ गयी । उसने कहा---'स्वामिपुत्री ! चिरकाल तक जिओ। आपके मनोरथ पूर्ण हुए। जो मैंने अनुमान किया था, वह वैसा ही हुआ।' रत्नवती ने कहा-'सखी ! वह क्या अनुमान किया था अथवा क्या वैसा ही हुआ ?' मदनमंजुला ने कहा—'स्वामिपुत्री! यह अनुमान किया था कि इस चित्र के समान अथवा जिसका यह चित्र है वही स्वामिपुत्री का वर होगा, वह वैसा ही हुआ। तब कटिसूत्र देकर रत्नवती ने कहा-'सखी ! कैसे ?' मदनमंजुला ने कहा-'सुनो मैं यहाँ स्वामिपुत्री के पास से महारानी के समीप गयो थी, मैंने विकसित मुखकमलवाली महारानी को चित्रमति और भूषण के साथ विचार करते हुए Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
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