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________________ अटठमो भवो ] दिट्ठा मए देवी । भणियं च णाए हला मयणमंजए, भणाहि मे जायं रयणवई, जहा 'पुण्णा मोरहा तुह भागधेहि, दिन्ना तुमं पणयपत्थणामहग्घं अओज्झासामिणो महारायमेत्तीबलसुयस्स कुमारगुणचदस्स' । रयणवईए भणियं-हला, क्रिमिमिणा असंबद्धेण । मयणमंजुयाए भणियंभट्टिदारिए, नेयमसंबद्ध कहावसाणं पि ताव सुणेउ भट्टिदारिया । तओ देवीए भणियं - 'आराहिओ तए एस चित्तयम्मेण परितुट्ठो य भयवं पयावई; जेण सो चेव ते 'अकयन्नकन्नारायदारियापरिग्गहो भत्ता विइण्णो' ति । एयं सोऊण हरिसिया रयणवई । दिन्नं मयणमंजुयाए निययाहरणं । चितियं च सहरिसं 'कहं सो चेव एसो गुणचंदो' त्ति । अहो जहत्थमभिहाणं । अवगओ विय में संतावो, तस्स गेहिणीस देण समागओ मुत्तिमंतो दिय परिओसो मयणमंजुयाए भणियं - भट्टिदारिए, तओ देवीए भणियं, ता एहि, मज्जिऊण गुरुदेवए बंदसु' त्ति । रयणवईए भणियं - जं अंबा आणवेइ । मज्जिऊण महाविभूईए वंदिया देवगुरवो । कारावियं महारायसंखायणेण महादाणाइयं उचियकरणिज्जं 'ठिइ' त्ति काऊण । सह चित्रमतिभूषणाभ्यां मन्त्रयमाणा दृष्टा मया देवी । भणितं च तया --हला मदनमञ्जुले ! भ मे जातां रत्नवतीम् यथा 'पूर्णा मे मनारथास्तव भागधेयैः, दत्ता त्वं प्रणयप्रार्थनामहार्घमयोध्यास्वामिने महाराज मैत्रीबलसुताय कुमारगुणचन्द्राय । रत्नवत्या भणितम् - सखि ! किमनेन! सम्बद्धेत । मदनमञ्जुलया भणितम् - भर्तृ दारिके ! नेदमसम्बद्धम्, कथावसानमपि तावत् शृणोतु भर्तृ दारिका । ततो देव्या भणितम् - 'आराधितस्त्वयैष चित्रकर्मणा, परितुष्टश्च भगवान् प्रजापतिः, येन स एव ते कृतान्यकन्याराजदारिकापरिग्रहो भर्ता वितीर्ण इति । एतच्छुत्वा हृष्टा रत्नवती । दत्तं मदनमञ्जुलायै निजाभरणम् । विन्तितं च सहर्षं कथं स एवैष गुणचन्द्र:' इति । अहो यथार्थ भवानम । अत्रगत इत्र मे सन्तापः, तस्य गेहिनीशब्देन समागतो मूर्तिमानिव परितोपः । मदनमञ्जुला भागतम् भर्तृदारिके ! ततो देव्या भणितं तत एहि, मज्जित्वा गुरुदैवतान् वन्दस्व' इति । रत्नवत्या भणितम् - यदम्बाऽऽज्ञापयति । मज्जित्वा महाविभूत्या वन्दिता देवगुरवः, कारितं महाराजशाङ्खायनेन महादानादिकमुचितकरणीयं स्थितिः' इति कृत्वा । ६६५ देखा | महारानी ने कहा- सखी मदनमजुला ! मेरी पुत्री रत्नवती से कहो कि तुम्हारे भाग्य से मेरे मनोरथ पूर्ण हो गये। अयोध्या के स्वामी महाराज मैत्रीबल द्वारा पुत्र कुमार गुणचन्द्र के लिए तुम्हारे प्रणय की प्रार्थना की गयी है।' रत्नवती ने कहा 'इस असम्बद्ध ( बातचीत) से क्या ?' मदनमंजुला ने कहा- 'स्वामिपुत्री ! यह असम्बद्ध नहीं है, स्वामिपुत्री कथा की समाप्ति भी सुनिए । अनन्तर महारानी ने कहा - 'तुमने चित्र की आराधना की, और भगवान् प्रजापति सन्तुष्ट हो गये, जिससे जिसने अन्य कन्या को राजरानी नहीं बनाया हैऐसे उसी कुमार को पति के रूप में दे दिया।' यह सुनकर रत्नवती सन्तुष्ट हुई। मदनमंजुला को अपना आभरण दिया और हर्षपूर्वक सोचने लगी- कैसे यह वही गुणचन्द्र है ? ओह, यथार्थ नाम है। मेरा दुःख मानो गया. उसके गृहिणी शब्द से मानो शरीरधारी सन्तोष आ गया । मदनमंजुला ने कहा - 'स्वामिपुत्री ! अनन्तर महारानी ने कहा- तो आओ, स्नान कर माता-पिता और देवताओं की वन्दना करो।' रत्नवती ने कहा'माता जी की आज्ञा ।' स्नान कर माता-पिता और गुरुओं की महान् विभूति के साथ वन्दना की। महाराज शांखायन ने 'मर्यादा' मानकर महादानादि योग्य कार्य किये । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
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