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[समराइन्धकहा
कुमारेण भणियं-'पुणो पढसु' ति। पढियं चित्तमइणा। अणंतरमेव लहिऊण भणियं कुमारेण–'पत्थरामसीहासुरसप्पवराहलावया'। भूसणेण भणियं - अहो अच्छरीयं, नज्जइ देवेण चेव कियं ति। विम्हिया वित्तमइ भूसणा। भणिओ कुमारेण धणदेवाहिहाणो भंडारिओ-भो धणदेव, देहि एयाण दोणारलक्खं ति। धणदेवेण भणियं -जं देवो आणवेइ। चितियं च णेण - अहो मुद्धया कुमारस्स । अलक्खं दाणमेव नस्थि । नणं न याणइ एसो, किंपमाणो लक्खो। ता इमं एत्थ पत्तयालं। संपाडेमि एयमेतसि कुमारपुरओ चेव, जेण विन्नायलक्खमहापमाणो न पुणो वि थेवकज्जे एवमाणवेइ ति। चितिऊण आणाविओ तेण तत्थेव दीणारलक्खो, पुंजिओ कुमारपुरओ। भणियं कुमारेण-भो धणदेव, किमयं ति। धणदेवेण भणियं-देव, एसो सो दोणारलक्खो, जो पसाईकओ देवेण एएसि चित्तयरदारयाणं । कुमारेण वितियं -हंत किमयं अज्ज संपयादसणं । नूणं
कुमारेण भणितं- 'पुनः पठ' इति । पठितं चित्रमतिना। अनन्तरमेव लब्ध्वा भणितं कुमारेण - 'पत्थरामसीहासुरसप्पवराहलावया' । [प्रस्तरा:-मषी-ईहा-सुरसप्रवरा-हला-आपगा। 'पत्थ'पार्थः (अर्जुनः), रामः-परशुरामः, 'सीह' सिंहः, (माया-प्रधानः) असुरः, 'सप्प' सर्पः विषप्रधानः, 'वराह' वराहः वसाप्रधान:, 'लावया' विषप्रधाना लवकपक्षिणः । भूषणेन भणितम्- अहो आश्चर्यम्, ज्ञायते देवेनैव कियदिति । विस्मितो चित्रमतिभूषणौ । भणित: कुमारेण धनदेवाभिधानो भाण्डागारिक:-भो धनदेव ! देहि एताभ्यां दीनारलक्षमिति । धनदेवेन भणितम्-यद् देव आज्ञापयति । चिन्तितं च तेन-अहो मग्धता कुमारस्य, अलक्षं दानमेव नास्ति । नूनं न जानात्येषः, किंप्रमाणं लक्षम् । तत इदमत्र प्राप्तकालम् । सम्पादयाम्येतदेताभ्यां कमारपुरत एव, येन विज्ञातलक्षमहाप्रमाणो न पुनरपि स्तोककार्ये एवमाज्ञापयतीति। विन्तयित्वा आनायितं तेन तत्रैव दोनारलक्षम्, पञ्जितं कुमारपुरतः । भणितं कुमारेण-भो धनदेव ! किमेतदिति । धनदेवेन भणितम् - देव ! एतद् तद् दीनारलक्षम्, यत् प्रसादीकृतं देवेनेतयोश्चित्रकरदारकयोः। कुमारेण चिन्ति
___ कुमार ने कहा- 'पुनः पढ़ो।' चित्रमति ने पढ़ा। शीघ्र ही प्राप्तकर (जानकर) कुमार ने कहापत्थरामसीहासुरसप्पवराहलावया' । पत्थर, स्याही, इच्छाएँ, मीठे रस से भरी हुई, हल, नदी, पार्थ, परशुराम, सिंह, असुर, सर्प, शूकर और लावक । तात्पर्य यह कि पत्थर कठिन होता है। स्याही काली होती है । इच्छाओं का तेज शाश्वत है अर्थात् संसार में इच्छाओं का तेज सदा रहता है। ईख मीठे रस से भरी रहती है। हल मूल्यवान् है । समुद्र तक नदी जाती है । धनुषप्रधान अर्जुन था। परशुराम परशुप्रधान था अर्थात् परशुराम सदा फरसा लिये रहते थे। सिंह नखप्रधान होता है । असुर मायाप्रधान होते हैं। सर्प विषप्रधान होते हैं । शूकर चर्वीप्रधान होते हैं (शूकर में चर्बी बहुत होती है।। लावक पक्षी विषयप्रधान होता है।' भूषण ने कहा-'ओह ! आश्चर्य है । महाराज ने ही कितना जान लिया !' चित्रमति और भूषण दोनों विस्मित हुए। कुमार ने धनदेव नामक भण्डारी से कहा-'हे धनदेव ! इन दोनों को एक लाख दीनारें दे दो।' धनदेव ने कहा - 'महाराज की जैसी आज्ञा।' उसने सोचा --ओह ! कुमार का भोलापन, बिना लाख का (कोई) दान ही नहीं है। निश्चित रूप से यह नहीं जानते हैं, लाख कितना होता है । तो यहाँ अवसर आया है। इन दोनों को कुमार के सामने देता हूँ, जिससे एक लाख का महाप्रमाण जानकर पुन: थोड़े से कार्य पर ऐसी आज्ञा न दें--ऐसा सोचकर उसने वहीं कुमार के सामने एक लाख दीनारों का ढेर लगा दिया। कुमार ने कहा-'धनदेव ! यह क्या है ?' धनदेव ने कहा'महाराज ! ये वह एक लाख दीनार हैं जो कि महाराज ने प्रसन्न होकर उन दोनों चित्रकार लडकों को दिया
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