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अट्ठमो भवो ]
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नट्ठा सुरासुरा रिसे व दसदिसिहत्ता ? किं इच्छइ सयलं चिय तेलोकं ? केरिसं च जुवईहि सया दाविज्जइ नियवयणं ?
कुमारेण भणियं - 'पुणो पढसु' त्ति । पढियं भूसणेण । अणंतरमेव लहिऊण भणियं कुमारेण - 'कण्णालंकारमणहरं सविसेस' । चित्तमइणा भणियं - अहो देवस्स बुद्धिपगरिसो, जमेयं लद्धं ति । देव, महंतो एयस्स एत्थ अहिमाणो आसि, न लद्धं च एयमन्नेणं । भूसणेण भणियंअरे, तुझं पि अज्ज अहिमाणो अवेइ । कुमारेण भणियं - 'कहं विय' । भूसणेण भणियं देव, एएण वि एवंविहं चैव चितिथं । कुमारेण भणियं - 'पढसु' ति । पढियं चित्तमइणा - के कढिणा नरिद ? का कसा ? तेओ का सासओ ? उच्छू केरिस व्व ? के य अरहिया ? का उयहिगामिणी ? के धणु पर सुनहर मायाविसवस विसयप्पहाणया जाणसु ?
सुरासुरा कीदृशे इव दर्शादिगभिमुखाः ? किमिच्छति सकलमेव त्रैलोक्यं कीदृशं च युवतिभिः सदा दश्यते निजवदनम् ?
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कुमारेण भणितं 'पुनः पठ' इति । पठितं भूषणन । अनन्तरमेव लब्ध्वा भणितं कुमारेण - 'कन्न । लङ्कारमणहरं सविसेसं' । कं (जल) नालं, कार - ( तिरस्कारः) मनोहरं, सविशेषम् । कन्या - लङ्का -- रमणगृहं सविषे [ अमृतमथने ], शं ( सुखं), अलङ्कारमनोहरं सविशेषम् । चित्रमतिना भणितम् -- अहो देवस्य बुद्धिप्रकर्षः, यदेतल्लब्धमिति । देव ! महानेतस्यात्राभिमान आसीद्, न लब्धं चैतदन्येन । भूषणेन भणितम् - अरे तवाप्यद्याभिमानोऽपैति । कुमारेण भणितम् - 'कथमिव' । भूषणेन भणितम् - देव ! एतेनाप्येवंविधमेव चिन्तितम् । कुमारेण भणितं 'पठ' इति । पठितं चित्रमतिना - के कठिना नरेन्द्र ? का कृष्णा ? तेज: कासु शाश्वतम् ? इक्षुः कीदृशीव, के च अर्हा ? का उदधिगामिनी ? कान् धनुः - परशु-नखर माया विष वसा-विषयप्रधानान् जानीहि ?
सुर और असुर कैसे दश दिशाओं की ओर अभिमुख हुए ? समस्त त्रिलोक क्या चाहता है ? युवतियाँ सदा अपना मुख कैसा दिखलाती हैं ?'
कुमार ने कहा - 'पुनः पढ़ो।' भूषण ने पढ़ा। अनन्तर ग्रहण कर कुमार ने कहा - 'कन्नालंकारमणहर सविसेसं' । जल, नाल, तिरस्कार, मनोहर, सविशेष— कन्या, लंका, रमणगृह, सविष होने पर, सुख, अलंकार से विशेष मनोहर । अर्थात् जल पिया जाता है । कमल का पहले 'नाल' (कमलदण्ड ) पकड़ा जाता है । शत्रु को तिरस्कार दिया जाता है। नववधू में मनोहर रत हैं। उपधा का स्वर विशेष होता है। कन्या दी जाती है । वानर ने लंका जलायी । वधू रमणगृह को जाती है । अमृतमन्थन के समय क्षीरसागर के द्वारा विष उगलने या क्षीरसागर के विषयुक्त होने पर सुर और असुर दश दिशाओं की ओर अभिमुख हुए। त्रिलोक सुख ( शं) सुख चाहता है । युवतियाँ अपना मुख सदा 'अलंकार से विशेष मनोहर' दिखलाती हैं ।
चित्रमति ने कहा - 'महाराज की बुद्धि का प्रकर्ष आश्चर्यमय है; जो कि इसे पा लिया। महाराज ! इसका (मेरा) इस विषय में बड़ा अभिमान था, इसे दूसरे ने नहीं पाया अर्थात् मेरे इन प्रश्नों का उत्तर दूसरा नहीं दे पाया।' भूषण ने कहा- 'अरे! तेरा भी आज अभिमान दूर होता है ।' कुमार ने कहा- 'कैसे ?' भूषण ने कहा - 'महाराज ! इसने भी इसी प्रकार सोचा था !' कुमार ने कहा- 'पढ़ो !' चित्रमति ने पढ़ा- 'राजन् ! कठिन है ? कौन काली है ? किसमें तेज शाश्वत हैं ? ईख कैसी होती है ? कौन मूल्यवान् हैं ? कौन समुद्र तक जाती है ? किन्हें धनुष, परशु, नख, माया, विष, वसा, विषयप्रधान जानें ?'
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