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[ समराइच्चकहा
परिवीजिऊण य तओ चंदणरससित्ततालियंटेहि। पडिबोहिओ म्हि दुक्खसवेविरं वारविलयाहिं ।। ७२६ ॥ गहिओ य महादुक्खेण तह जहा विविखउं पि न चएमि । तह दुक्खतस्स य मे बोलीणा तिण्णिहोरत्ता ।। ७३ ॥ नवरं चउत्थदियहे समागओ तिव्वतवपरिक्खीणो। भइपसाहियदेहो जडाधरो मंतसिद्धो त्ति । ७३१॥ भणियं च णेण नरवइ कज्जेण विणाउलो तुमं कीस । मंतविहाणनिमित्तं नणु जाया तुह मए नीया ॥ ७३२ ॥ कप्पो य तत्थ एसो जेण तुम जाइओन तं पढम। न य तीए सोलभेओ जायइ देहस्स पीडा वा ॥ ७३३ ॥ ता मा संतप्प दढं छम्मासा आरओ तुमं तीए। जुज्जिहसि नियमओ इय भणिऊणमदंसणो जाओ॥ ७३४ ॥
परिवीज्य च ततश्चन्दनरससिक्ततालवन्त । प्रतिबोधितोऽस्मि दुःखांशवेपमानं वारवनिताभिः ॥७२६।। गृहीतश्च महादुःखेन तथा यया वीक्षितुमपि न शक्नोमि । तया दुःखार्तस्य मे गतानि त्रीण्यहोरात्राणि ॥७३०॥ नवरं चतुर्थदिवसे समागतस्तोव्रतपःपरिक्षीणः । भूतिप्रसाधितदेहो जटाधरो मन्त्रसिद्ध इति ॥ ७३१॥ भणितं च तेन नरपते ! कार्येण विनाऽऽकुलः त्वं कस्मात् । मन्त्रविधान निमित्तं नन जाया तव मया नीता ।।७३२॥ कल्पश्च तत्र एष येन त्वं याचितो न तां प्रथमम् । न च तस्याः शीलभेदो जायते देहस्य पोडा वा ॥ ७३३॥ ततो मा संतप्यस्व दृढं षण्मासादारतः (षण्मासात्पूर्वे) त्वं तया । योक्ष्यसे नियमत इति भणित्वाऽदर्शनो जातः ।। ७३४॥
महामोह (मूर्छा) को प्राप्त हो गया। अनन्तर पंखों से हवा कर, चन्दन के रस से सींचकर, दुःखों के अंश से काँपती हुई वारांगनाओं ने मुझे प्रतिबोधित किया। मुझे महादुःख ने उस प्रकार जकड़ लिया कि मैं देख भी नहीं सकता था। उस प्रकार के दुःख से आर्त (दुःखी) हुए मेरे तीन दिन-रात बीत गये। चौथे दिन तीव्र तप के कारण दुर्बल शरीर में भस्म लगाये हुए वह जटाधारी मन्त्र सिद्ध करनेवाला आया और उसने कहा-'राजन ! कार्य के बिना तुम क्यों आकुल हो ? मन्त्र के विधान के लिए मैं आपकी पत्नी ले गया था। यह प्रस्ताव है कि आप उसे पहिले न माँगें। उसका शील-भेद नहीं होगा और न ही शरीर को पीड़ा होगी । अतः अत्यधिक दुःखी मत होओ, मैं छह माह से पहले उससे अवश्य मिला दूंगा' - ऐसा कहकर वह अदृश्य हो गया ।।७२३-७३४॥
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