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________________ अट्ठमो भवो] ता जइ न अन्तरायं जायइ अन्नस्स कुसलजोयस्स। साहेहि तओ भयवं तं मज्झमणुग्गहट्टाए ॥७२२।। भणियमह कुमारेणं अम्ह वि भयवं अणुग्गहो एस । कीरउ इमस्स वयणं अहवा भयवं पमाणं ति ॥७२३॥ तो जंपियं भयवया निसुणह जइ तुम्भ एत्थ कोडं ति । मग्गपडिवत्तिमाई सुंदर जो मज्झ वुत्तंतो॥७२४॥ अस्थि इह भरहवासे मिहिला नयरी जणम्मि विक्खाया। तीए अहमासि राया नामेणं विजयधम्मो त्ति ॥७२५।। इट्ठा य अग्गहिसी देवी नामेण चंदधम्म ति। सा अन्नया य सहसा इत्थीरयणं ति काऊणं ॥७२६॥ मंतविहाणनिमित्तं हरिया केणावि मंतसिद्धण। अंतेउरमज्झगया मह हिययमयाणमाणेण ॥७२७।। कहिओ य मज्झ एसो वृत्तंतो कहवि विजयदेवीए। सोऊण य मोहाओ गओमि अहयं महामोहं ।। ७२८ ।। ततो यदि नान्तराय जायतेऽन्यस्य कुशलयोगस्य । कथय ततो भगवन् ! तं ममानुग्रहार्थम् ।। ७२२।। भणितमथ कुपारेण अस्माकमपि भगवन् ! अनुग्रह एषः । क्रियतामस्य वचनमथवा भगवान् प्रमाणमिति ।। ७२३।। ततो जल्पितं भगवता निशृणुत यदि युष्माव मत्र कुतूहलमिति । मागंप्रतिपत्यादि: सुन्दर ! यो मम वृत्तान्तः ।।७२४।। अस्तीह भरतवर्षे मिथिला नगरी जने विख्याता । तस्यामहमासं राजा नाम्ना विजयधर्म इति ॥७२५॥ इष्टा चाग्रमहिषी देवी नाम्ना चन्द्रधर्मेति । साऽन्यदा च सहसा स्त्रीरत्न मिति कृत्वा ।।७२६।। मन्त्रविधाननिमित्तं हृता केनापि मन्त्र सिद्धेन । अन्तःपुरमध्यगता मम हृदयमजानता ॥७२७।। कथितश्च ममेष वृत्तान्त: कथमपि विजयदेव्या। श्रुत्वा च मोहाद् गतोऽस्मि अहं महामोहम् ॥७२८।। दूसरे शुभकार्य में विघ्न न हो तो भगवन्, मुझ पर अनुग्रह करने के लिए कहिए।' ॥७१६-७२॥२ ... अनन्तर कुमार ने कहा-'भगवन् ! हमारा भी यही अनुग्रह है, इसके वचन पूर्ण करो अथवा भगवान् प्रमाण हैं अर्थात् जैसा आप चाहे वैसा करें।' अनन्तर भगवान ने कहा- 'तुम लोगों को इस विषय में यदि कौत हल है तो मार्गदर्शनादि से सुन्दर जो मेरा वत्तान्त है, उसे सुनो। इस भारतवर्ष में लोगों में विख्यात 'मिथिला' नगरी है। उसका मैं विजयधर्म नामक राजा था। मुझे चन्द्रधर्मा नामक पटरानी इष्ट थी। एक बार यकायक - 'स्त्रीरत्न है'-ऐसा मानकर मेरे हृदय को न जानते हुए किसी मन्त्रसिद्ध करनेवाले ने मन्त्र के विधान के लिए (उसे) अन्त:पुर के मध्य से हर लिया। मुझे यह वृत्तान्त किसी प्रकार विजयदेवी ने कहा । सुनकर मैं मोह से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
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