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________________ अट्ठमो भवो अहमवि य गओ मोहं तहेव आसासिओ परियणेण । हा देवि दोहविरहो कत्थ तुमं देहि पडिवयणं ॥७३५।। मोहवसयाण जे जे आलावा होंति तम्मि कालम्मि । परिचत्तरज्जकज्जो ठिओ अहं तत्थ विलवंतो॥७३६॥ दण भवणवावीरयाइ बिलसंतहंसमिहुणाई। परियणपीडामणयं मोहं बहुसो गओ अहयं ॥७३७॥ कि बहुणा निरयसमं मज्झ तया दुक्खमणहवंतस्स। वोलोणा पलिओवमतुल्ला मासा कहवि पंच ॥७३८॥ कइवयदिणेहि नवरं मक्को अनिमित्तमेव दुक्खण। परियणहिययाणंदं जाओ य महापमोओ मे ॥७३६॥ जाया य महं चित्ता अन्नो विय मज्ज अंतरप्पा मे। जाओ पसन्नचित्तो ता किं पुण कारणं एत्थ ॥७४०॥ अहमपि च गतो मोहं तथैवाश्वासितः परिजनेन । हा देवि ! दीर्घविरहः कुत्र त्वं देहि प्रतिवचनम् ॥ ७३५॥ मोहवशगानां ये ये आलापा भवन्ति तस्मिन् काले। परित्यक्तराज्यकार्यः स्थितोऽहं तत्र विलपन ॥७३६।। दृष्ट्वा भवनवापीरतानि विलसदहंसमिथुनानि । परिजनपीडाजनकं मोहं बहुशो गतोऽहम् ।।७३७।। किं बहुना निरयसमं मम तदा दुःखमनुभवतः । गताः पल्योपमतुल्या मासाः कथमपि पञ्च ।।७३८॥ कतिपयदिवसर्नवरं मुक्तोऽनिमित्तमेव दुःखेन । परिजनहृदयानन्दं जातश्च महाप्रमोदो मे ।।७३६।। जाता च मम चिन्ताऽन्य इव ममान्तरात्मा मे। जातः प्रसन्नचित्तस्ततः किं पुनः कारणमत्र ।।७४०।। मैं भी परिजनों द्वारा आश्वासन दिये जाने पर मोह को प्राप्त हो गया। हाय महारानी ! विरह लम्बा है, तुम कहाँ हो ? उत्तर दो। उस समय मोह के वशीभूत हुए प्राणियों के जो आलाप होते हैं वहाँ पर बिलाप करते हुए मैंने राज्यकार्य छोड़ दिया। भवन की बावड़ी में रत हंसो के जोड़ों को देखकर परिजनों को पीड़ा देने वाली मूर्छा को मैं कई बार प्राप्त हुआ। अधिक कहने से क्या, तब नरक के समान दुःख का अनुभव करते हुए, पल्य के समान पाँच मास किसी प्रकार बीत गये। कुछ दिनों में, बिना कारण ही मैं दुःख से मुक्त हो गया। परिजनों के हृदय को आनन्द देनेवाले, मुझे बहुत हर्ष हुआ। मैं सोचने लगा कि मेरी अन्तरात्मा अन्य के समान प्रसन्नचिन्न हो गयी है, इसका कारण क्या है ?।।७३५-७४०।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
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