SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 264
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ७१४ [समराइच्चकहा एत्थंतरम्मि सहसा सिझैं पवियसियलोयणजएण। वद्धावएण मज्झं जहागओ देव तित्थयरो॥७४१।। सोउण इमं वयणं 'हरिसवसपयट्टपयडपुलएणं । वद्धावयस्स रहसा दाऊण जहोचियं किपि ॥७४२॥ गंतूण भूमिभायं थेवं पुरओ जिणस्स काऊण। तत्थेव नमोक्कारं परियरिओ रायवंद्र हि ॥७४३॥ दाऊण य आत्ति करेह करितरयजग्गजाणाई। सयराहं सज्जाइं वच्चामो जिणवरं नमिउं ॥७४४॥ भूसेह य अप्पाणं बस्थाहरणेहि परमरम्महि । सयमवि य जिणसयासं जाओ अह गमणजोग्गो त्ति ॥७४५।। भुवणगुरुणो वि ताव य पारद्धं तियसनाहणिएहि । देवेहि समोसरणं नयरीए उत्तरदिसाए ॥७४६॥ अत्रान्तरे सहसा शिष्टं प्रविकसितलोचनयुगेन । वर्धापकेन मम यथाऽऽगतो देव ! तीर्थकरः ॥७४१॥ श्रुत्वेदं वचनं हर्षवशप्रवृत्तप्रकटपुलकेन । वर्धापकस्य रभसा दत्त्वा यथोचितं किमपि ॥ ७४२॥ गत्वा भूमिभागं स्तोकं पुरतो जिनस्य कृत्वा । तत्रव नमस्कारं परिकरितो राजवन्द्रः ॥७४३।। दत्त्वा चाप्ति कुरुत करितुरगयुग्ययानानि । शीघ्र सज्जानि, ब्रजामो जिनवरं नन्तुम् ॥७४४ ।। भूषयतात्मानं वस्त्राभरणैः परमरम्यः । स्वयमपि च जिनसकाशं जातोऽथ गमनयोग्य इति ॥७४५।। भुवनगुरुणोऽपि तावच्च प्रारब्धं त्रिदशनाथभणितैः । देवैः समवसरणं नगर्या उत्तरदिशि ॥७४६।। . इसी बीच विकसित नेत्रयुगलवाले वर्धापक (बधाई देनेवाले) ने यकायक कहा-'महाराज, तीर्थंकर देव आये हैं।' यह वचन सुन हर्षवश जिसे रोमांच हो आया है, ऐसा मैंने वर्धापक को शीघ्र ही यथायोग्य कुछ देकर, सामने थोड़ी दूर जाकर, वहीं भगवान जिनेन्द्र की दिशा में नमस्कार किया और राजाओं को आज्ञा दी कि हाथी, घोड़े और जोड़ेवाले वाहनों को शीघ्र तैयार करो। जिनवर की वन्दना के लिए जाएंगे। अपने आपको परम रमणीय वस्त्राभरणों से भूषित कर स्वयं भी वह जिनेन्द्र के समीप जाने के लिए तैयार हो गया । संसार के गुरु को इन्द्र के बों ने नगर की उत्तरदिशा में समवसरण की रचना प्रारम्भ कर दी। वायुकुमारों ने स्वयं नन्दनबन १. -वमुभिप्नपय ड-पा. ज्ञा. । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy