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________________ । समराइच्चकहा चउणाणो देवसाहुसमेओ अमरेसरो नाम गणहरो। तप्पहावेण महेसराईणं वियलिओ सोयाणुबंधो। अहो अउव्वदंसणो भयवं पसंतो तियसपूइओ य। जाया धम्मसवणबुद्धी। कयं भयवओ तियसेहि उचियकरणिज्ज, सोहिओ धरणिभाओ, वरिसियं गंधोदयं, विमुक्कं कुसुमवरिसं, विउव्वियं कंचणपउमं। उवविट्ठो तत्थ भयवं अमरेसरो, पत्थुया धम्मकहा। भणियं च ण-भो भो देवाणुप्पिया, परिच्चयह मोहनि, जग्गेह धम्मजागरेणं, परिहरह पाणवहाइए पावट्ठाणे, अंगीकरेह खंतिपमुहे गुणे, उज्झेह भाववेरियं पमायं । पमायवसओ हि जीवो थेवेण वि अणायारदोसेण विवायदारुणाई पभूयकालवेयणिज्जाइं बंधेइ कम्माई, तविवाएणं च पावेइ सारीरमाणसे दुक्खे, जहा एस अरुणदेवो देइणो य। तओ नरवइपमुहेहिं पुच्छिओ गणहरो-भयवं, कि कयमणेहिं । एत्यंतरम्मि साहियं भयवया नाणसूरेण पुवकहियं कहाणयं । अहो एहहमेत्तस्स वि दुक्कडस्स ईइसो विवागो त्ति संविग्गा परिसा । मच्छिओ अरुणदेवो देइणी य। लद्धा चेयणा, समुप्पन्नं जाइसरणं, अवगओ संकिलेसो, आवडिओ सुहपरिणामो। भणियं च हिं–भयवं, एवमेयं, जं भयवया आइलैं ति। चतुर्ज्ञानी देवसाधसमेतोऽमरेश्वरो नाम गणधरः । तत्प्रभावेन महेश्वरादीनां विचलितः शोकानुबन्धः । अहो अपूर्वदर्शनो भगवान् प्रशान्तस्त्रिदशपूजितश्च । जाता धर्मश्रवणबुद्धि। कृतं भगवतस्त्रिदशैरुचितकरणीयम, शोभितो धरणीभागः, वृष्टं गन्धोदकम्, विमुक्तं कुसुमवर्षम्, विकुर्वितं काञ्चनपद्मम् । उपविष्टस्तत्र भगवान् अमरेश्वरः, प्रस्तुता धर्मकथा । भणितं च तेन-भो भो देवानुप्रियाः ! परित्यजत मोहनिद्राम्, जागृत धर्मजागरेण, परिहरत प्राणवधादिकानि पापस्थानानि, अङ्गीकुरुत क्षान्तिप्रमुखान् गणान्, उज्झत भाववैरिकं प्रमादम् । प्रमादवशगो हि जोवः स्तोकेनापि अनाचारदोषेण विपाकदारुणानि प्रभतकालवेदनीयानि बध्नाति कर्माणि, तद्विपाकेन च प्राप्नोति शरीरमानसानि दुःखानि, यथेषोऽरुणदेवो देविनी च । ततो नरपतिप्रमुखैः पृष्टो गणधरः-भगवन् ! किं कृतमाभ्याम् । अत्रान्तरे कथित भगवता ज्ञानसूरेण पूर्वकथितं कथानकम् । अहो एतावन्मात्रस्यापि दुष्कृतस्येदशो विपाक इति संविग्ना परिषद् । मूच्छितोऽरुणदेवो देविनी च । लब्धा चेतना, समूत्पन्नं जातिस्मरणम, अपगतः संक्लेशः, आपतितः शभपरिणामः । भणितं च ताभ्याम्-भगवन् ! एवमेतद्, यद् भगवताऽऽदिष्ट मिति । संस्मृताऽऽवाभ्यां पूर्वजातिः । मन:पर्यय-इन चार ज्ञान के धारी अमरेश्वर नाम के गणधर आये। उनके प्रभाव से महेश्वर आदि का शोक दूर हो गया। ओह ! भगवान् अपूर्वदर्शी, प्रशान्त और देवों से पूजित हैं । धर्म सुनने की बुद्धि हुई । देवताओं ने भगवान् के योग्य कार्यों को किया, पृथ्वी शोभित हो गयी, गन्धोदक की वर्षा हुई । फूलों की वर्षा की, स्वर्णकमलों की रचना की। वहां पर भगवान् अमरेश्वर विराजमान हुए। धर्मकथा प्रस्तुत की । उन्होंने कहा—'हे देवानुप्रियो ! मोहनिद्रा को छोड़ो, धर्म जागरण से जागो, प्राणिवध आदि पाप के स्थानों का परिहार करो, क्षमादि प्रमुख गुणों को अंगीकार करो, भावों के वैरी प्रमाद को छोड़ो। प्रमाद के वश होकर जीव थोड़े से भी अनाचार के दोष से परिणामस्वरूप दारुण, बहुत काल तक अनुभव किये जानेवाले कर्मों को बाँधता है और उसके फलस्वरूप शारीरिक और मानसिक दुःखों को पाता है, जिस प्रकार अरुणदेव और देविनी ने प्राप्त किये। तब राजादि प्रमुख पुरुषों ने गणधर से पूछा-'भगवन् ! इन दोनों ने क्या किया था ?' तब भगवान् ज्ञानसूर्य ने पहिले कहे हुए कथानक को कहा। ओह , इतने से पाप का यह फल होता है !-ऐसा सोचकर सभा भयभीत हुई । अरुणदेव और देविनी मूच्छित हुए। होश आया, जातिस्मरण उत्पन्न हुआ, दुःख दूर हुआ, शुभ परिणाम हुए। उन दोनों ने कहा-'भगवन् ! जो भगवान् ने आज्ञा दी यह वैसा ही है। हम दोनों को पूर्वजन्म का स्मरण हो आया । जिन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
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