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सत्तमो भवो ]
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जइ कोउगेण गओ' ति। निरूविओ वज्झथामे। अओ परं 'एस दिट्ठो' त्ति भणिऊण निवडिओ धरणिवठे तत्तवालयागओ विय मच्छओ तडफडिओ धराए। उट्ठिऊण सिलाओ अप्पाणयं वहिउमाढत्तो त्ति । धरिओ पेच्छ्यजणेहिं । फुट्टो य एस वइयरो लोए । तओ आयणिओ जसाइच्चेण । देइणि घेत्तूण आगओ एसो। दिट्ठोणेण अरुणदेवो पच्चभिन्नाओ य । 'अहो मे अहन्नय' तिमुच्छिओ सह देइणीए । समासासिओ परियणेण । भणियं जसाइच्चेण-कट्ठाणि मे नोसारेड् । न सबकुणोमि एवं सोयसंतावं विसहिउं; ता परिच्चएमि जीवियं ति । सवणपरंपराए एवं सोऊण कुविओ दंडवासियाण राया। भणियमणेहि--देव, सलोत्तओ एस दिट्ठो, न उण अम्हे जोइणो ति। पच्चाइओ णेहिं राया। समागओ जसाइच्चपच्चायणनिमित्तं वज्झत्थामं राया। भणिओ य ण सेट्ठी-- अज्ज, देव्वं एत्थ अवरज्झइ, न उण अम्हाण बुद्धी। ता अलं इमिणा ववसाएणं । एवं विहा देवपरिणइ ति।
एत्थंतरम्मि 'एयवइयरेणं पडिबुझंति एत्थ बहवे पाणिणो' ति मुणिऊण समागओ भयवं व्यापादितश्च, ततो निरूपय तत्र, यदि कौतुकेन गतः' इति । निरूपितो वध्यस्थाने । अतः परं 'एष दृष्टः' इति भणित्वा निपतितो धरणीपृष्ठे तप्तवालुकागत इव मत्स्यो व्याकुलितो धरायाम् । उत्थाय शिलाया आत्मानं घातयितुमारब्ध इति । धतः प्रेक्षकजनः । स्फुटितश्चैष व्यतिकरो लोके। ततः आकर्णितो यशआदित्येन। देविनी गृहीत्वा आगत एषः । दृष्टस्तेनारुणदेव: प्रत्यभिज्ञातश्च । 'अहो मेऽधन्यता' इति मच्छितः सह देविन्या। समाश्वासितः परिजनेन । भणितं यशआदित्येन - काष्ठानि मे निःसारयत । न शक्नोम्येतं शोकसन्तापं विसोढम्, ततः परित्यजामि जीवितामति । श्रवणपरम्परयतच्छ त्वा कुपितो दण्डपाशिकेभ्यो राजा। भणितमेभिः--देव ! सलोप्त्रक एष दृष्टः, न पुनर्वयं योगिन इति । प्रत्यायितस्तै राजा । समागतो यशआदित्यप्रत्यायननिमित्तं वध्यस्थानं राजा। भणितश्च तेन श्रेष्ठो-आर्य ! दैवमत्रापराध्यति, न पुनरस्माकं बुद्धिः । ततोऽलमनेन व्यवसायेन । एवंविधा देवपरिणतिरिति ।
अत्रान्तरे 'एतद्व्यतिकरेण प्रतिबुध्यन्तेऽत्र बहवः प्राणिनः' इति ज्ञात्वा समागतो भगवान्
यहाँ देवमन्दिर से एक चोर पकड़ा गया और मार डाला गया है, अत: यदि कौतूहल हो तो वहाँ देखो । वध्यस्थान में देखा । अनन्तर यह देखा'---ऐसा कहकर तपी हुई बालू में पड़ी हुई मछली के समान व्याकुल होकर पृथ्वी पर गिर गया। उठकर शिला से अपने को मारना प्रारम्भ किया। दर्शकों ने पकड़ लिया। यह घटना लोक में फैल गयी। यशादित्य ने सुना। देविनी को लेकर वह आया। उसने अरुणदेव को देखा और पहिचान लिया। 'ओह मेरी अधन्यता !' इस प्रकार देविनी के साथ मच्छित हो गया। परिजनों ने आश्वस्त किया। यशादित्य ने कहा 'मेरे लिए लकड़ियाँ लाओ, मैं इस शोक के सन्ताप को सहन नहीं कर सकता, अतः प्राण त्याग करता हूँ।' कानों-कान यह बात सुनकर राजा सिपाहियों पर कुपित हुआ। सिपाहियों ने कहा- 'यह चोरी के माल के साथ देखा गया, हम लोग योगी तो नहीं हैं।' उन्होंने राजा को विश्वास दिला दिया। राजा यशादित्य को विश्वास दिलाने के लिए वध्यस्थान में आया। उसने सेठ से कहा---'आर्य ! दैव ही अपराध कराता है, न कि हमारी बुद्धि । अत: ऐसा निश्चय मत करो । भाग्य की परिणति ही इस प्रकार की होती है।'
इसी बीच 'इस घटना से यहाँ बहत से प्राणी प्रतिबोधित होंगे'-ऐसा जानकर मति, श्रुति, अवधि और
१. अब 'ओयारिओ सलियाओं पडिमणुहवंती अरुणदेवो' इत्यधिक: पाठ:--डे. ज्ञा.।'
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