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[ समराइच्चकहा तत्थ गओ त्ति । तओ संखुद्धो महेसरो। भणियं च णेण-भद्दा भद्दा, कहिं तं वज्झथामं । साहियं मालिएहि । विसण्णचित्तो गओ महेसरो। दिट्ठो य णेण सूलियाविभिन्नदेहो दारुणं अवत्थमणुहवंतो अरुणदेवो । 'हा सेट्टिपुत्त' ति भणमाणो निडिओ महेसरो; मुच्छिओ य एसो। कोउयाणुयंपाहि समासासिओ पेच्छ्यजहि । पेच्छिओ यहि-अज्ज, को एसो सेट्टिपुत्तो ति । तओ सगग्गय भणियं महेसरेण हन्त, किमेयाए कहाए। निव्वत्तं' कहाणयं। एसो खु तामलित्तितिलयभूयस्स पुत्तो कुमारदेवस्स इह नयरवत्थव्वयस्स जामाउओ जसाइच्चस्स वहणभंगेण विउत्तपरियणो अज्जेव इमं नयरमागओ त्ति । भणिओ य मए-कुमार, एत्थ भवओ ससुरकुलं ति; तातहिं पविसम्ह । तओ जंपियमणेणअज्ज, न जुत्तो मे एयावत्थगयस्स ससुरकुलपवेतो। मए भणियं- कुमार, ज इ एवं, ता चिट्ठ ताव तुम एत्थ देवउले, जाव आणेमि हट्ठाओ अहं किपि भोयणजायं ति। तो पडिस्सुयमणेण । गओ य अहयं पावकम्मो। समागओ घेत्तूण भोयणं । निरूवियं देवउलं, जाव न दिट्ठो त्ति । तओ पुच्छ्यिा मालागारा। पिसुणियमणेहि, जहा 'गहिओ संपयं चेव एत्थ देवउलाओ चोरो वावाइओ य; ता निरूवेहि तत्थ; कौतुकेन तत्र गत इति । ततः संक्षब्धो महेश्वरः। भणितं च तेन-भद्र ! भद्र ! कत्र तद वध्यस्थानम् । कथितं मालिकः । विषण्णचित्तो गतो महेश्वरः । दृष्टस्तेन शूलिकाविभिन्नदहो दारुणामवस्थामनुभवन्नरुणदेवः । 'हा श्रेष्ठिपुत्र' इति भणन् निपतितो महेश्वरः, मूच्छितश्चैषः । कौतुकानुकम्पाभ्यां समाश्वासितः प्रेक्षकजनः । पृष्टश्च तैः-आर्य ! क एष श्रेष्ठिपुत्र इति। ततः सगद्गदं भणितं महेश्वरेण-हन्त किमेतया कथता । निर्वृत्तं कथानकम् । एष खलु ताम्रलिप्तीतिलकभूतस्य पुत्रः कुमारदेवस्येह नगरवास्तव्यस्य जामातको यशआदित्यस्य वहनभङ्गेन वियुक्तपरिजनोऽद्य वेदं नगरमागत इति । भणितश्च मया-कुमार ! अत्र भवतः श्वसुरकुलमिति, ततस्तत्र प्रविशावः । ततो जल्पितमनेन-~-आर्य ! न युक्तो मे एतदवस्थागतस्य श्वसुरकुलप्रवेशः । मया भणितम्कुमार! यद्येवं ततस्तिष्ठ तावत् त्वमत्र देवकुले, यावदानयामि हट्टादहं किमपि भोजनजातमिति । ततः प्रतिश्रुतमनेन । गतश्वाहं पापकर्मा । समागतो गृहीत्वा भोजनम् । निरूपितं देवकुलम्, यावन्न दृष्ट इति । ततः पृष्टा मालाकाराः। पिशुनित मेभिः, यथा 'गृहीतः साम्प्रतमेवात्र देवकलाच्चौरो
गया। अत: नहीं हमें नहीं मालूम । यदि कौतूहल हो तो वहाँ जाओ।' अनन्तर महेश्वर क्षुब्ध हुआ। उसने कहा'भद्र ! भद्र ! यह वध्यस्थान कहाँ है ? मालियों ने बताया। खिन्नचित्त होता हुआ महेश्वर गया। उसने शूली से भेदे हुए शरीरवाले, भयंकर अवस्था का अनुभव करते हुए अरुणदेव को देखा । 'हाय श्रेष्ठिपुत्र'- ऐसा कहता हुआ महेश्वरदत्त गिर गया। इसे मूर्छा आ गयी। कोतूहल और दया से दशकों ने आश्वस्त किया और उन्होंने पूछा-'आर्य ! यह श्रेष्ठिपुत्र कौन है ?' तब गद्गद होकर महेश्वर ने कहा-'खेद है, इस कथा से क्या, कथानक समाप्त हो गया। ह ताम्रलिप्ती के तिलकभूत कुमारदेव का पुत्र और इस नगरवासी यशादित्य का दामाद जहाज टूट जाने के कारण परिजनों से वियक्त हआ आज ही इस नगर में आया था। मैंने कहा-कमार ! यहाँ पर तुम्हारे श्वसुर का घर है, अत: वहाँ दोनों प्रवेश करें। तब इसने कहा-इस अवस्था में आये हए मेरा श्वसुर के घर जाना उचित नहीं है । मैंने कहा-यदि ऐसा है तो तुम यहाँ देवमन्दिर में ठहरो, जब तक मैं बाजार से कुछ भोजन-सामग्री लाता हूँ । अनन्तर इसने स्वीकार किया और मैं पापी चला गया। भोजन लेकर आया। देवमन्दिर में देखा, वहाँ पर दिखाई नहीं दिया । अनन्तर मालियों से पूछा । इन्होंने सूचना दी कि 'अभी
१. निवृत्तं-च।
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