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सत्तमो भवो]
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भणिओ यहि-अरे दुरायार, कहिं वच्चसि । तओ हत्थाओ चेव निडिया छुरिया। गहिओ दंडवासिएहि । भणियं च ण-अज्ज, कि मए कयं । दंडवासिएहि भणियं-जं देव्वचोइया करेंति; ता समप्पेहि तं कडयजुयलं । अरुणदेवेण भणियं-अज्ज, न याणामि कडयजुयलं ति । तओ कुविया दंडवासिया। ताडिओ यहि । भयाभिभूयस्स अजत्तगोवियं पडियं कडयजुयलं। गहियं दंडवासिएहि । नियमिओ एसो। नीओ नरवइसमीवं। साहिओ एस वइयरो नरवइस्स सरित्थं पेच्छिऊण अजायसंकेण भणियं राइणा-नेह, सूलाए भिदह ति। तओ नरवइसमाएसाणंतरमेव नीओ वज्झत्यामं ति । भिन्नो सूलियाए।
एत्यंतरम्मि घेत्तण भोयणं आगओ महेसरो। निरूवियं देवउलं। न दिट्टो अरुणदेवो। गवेसिओ आसन्नदेसेसु, तहवि न विट्ठो ति। आउलीहूओ महेसरो। पुच्छिया गेण देवउलसमीवारामवासिणो मालिया-भो, एवंविहो सेट्टिपुत्तो इमाओ देवउलाओ कुओइ गच्छमाणो न दिट्ठो भवंतेहिं । तेहि भणियं-अज्ज, न दिट्ठो; गहिओ एत्थ चोरो, संपयं वावाइओ य । ता न याणामो जइ कोउएण
संक्षब्धोऽरुणदेवः । भणितश्च तैः- अरे दुराचार ! कुत्र व्रजसि । ततो हस्तादेव निपतिता छुरिका । गहीतो दण्डपाशिकः। भणितं च तेन-आर्य! किं मया कृतम् । दण्डपाशिकर्भणितम्-यद् दैव चोदिताः कुर्वन्ति, ततः समर्पय तत्कटकयुगलम् । अरुणदेवेन भणितम्-आर्य ! न जानामि कटकयुगलमिति । ततः कुपिता दण्डपाशिकाः। ताडितश्च तैः । भयाभिभूतस्यायत्नगोपितं पतितं कटक युगलम् । गृहीतं दण्डपाशिकैः । नियमित एषः । नीतो नरपतिसमीपम् । कथित एष व्यतिकरो नरपतये। सरिक्थं प्रेक्ष्याजातशङ्कण भणितं राज्ञा-नयत, शलया शिन्देति । ततो नरपत्सिमादेशानन्तरमेव नीतो वध्यस्थानमिति । भिन्नः शूलिकया।
अत्रान्तरे गृहीत्वा भोजनमागतो महेश्वरः । निरूपितं देवकलम् । न दृष्टोऽरुणदेवः । गवेषित आसन्नदेशेषु, तथापि न दृष्ट इति । आकुलीभूतो महेश्वरः । पृष्टास्तेन देवकुलसमीपारामवासिनो मालिकाः - भो! एवंविधः श्रेष्ठिपुत्रोऽस्माद् देवकुलात् कुतश्चिद् गच्छन् न दृष्टो भवद्भिः ? तैभणितम्-~-आर्य ! न दृष्टः । गृहीतोऽत्र चौरः, साम्प्रत व्यापादितश्च । ततो न जानीमो यदि
हुआ जब वह देख रहा था कि तभी सिपाही आ गये। उन्हें देखकर अरुणदेव क्षुब्ध हुआ। सिपाहियों ने कहा'अरे दुराचारी ! कहाँ जाते हो ?' तब हाथ से छुरी गिर पड़ी। सिपाहियों ने उसे पकड़ लिया। अरुणदेव ने कहा'आर्य ! मैंने क्या किया ?' सिपाहियों ने कहा- 'जो भाग्य से प्रेरित करते हैं, अतः उस कड़े के जोड़े को सौंप दो।' अरुणदेव ने कहा ---'आर्य ! कड़े के जोड़े का मुझे पता नहीं।' अनन्तर सिपाही कुपित हुए। उन्होंने मारा । भयभीत होने के कारण बिना प्रयत्न का छिपाया हुआ कड़े का जोड़ा गिर पड़ा। सिपाहियों ने जब्त कर लिया। इसे बांधा। राजा के पास ले गये। राजा से यह घटना कही। माल के साथ देखकर बिना शंका किये ही राजा ने कहा--'ले जाओ, शूली से भेद डालो।' अनन्तर राजा के आदेश के तत्काल बाद उसे बध्यस्थान में ले जाया गया और शूली से भेद दिया गया।
इसी बीच भोजन को लेकर महेश्वर आया। देवमन्दिर में देखा। अरुणदेव दिखाई नहीं दिया। समीप के स्थानों में देखा तो भी नहीं दिखाई दिया। महेश्वर आकूल हो गया। उसने देवमन्दिर के समीप उद्यान में रहनेवाले मालियों से पूछा-'हे (मालियो) ! इस प्रकार का सेठ का पूत्र देवमन्दिर से कहीं जाता हुआ आप लोगों ने तो नहीं देखा?' उन्होंने कहा-'आर्य, नहीं देखा। यहाँ पर एक चोर पकड़ा गया है और अभी-अभी मार डाला
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