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________________ ६५० [समराइचकहा गहिया तक्करेण। दिठं से महामहग्धं माणिक्ककडयजवलं । अद्धगहियमणेणं जाव अइगाढत्तणेणं न तोरइ गेण्हिलं, कढ़िया णेण रिया। गुज्जियं' से वयणं, छिन्ना य हत्था। गेण्हिऊण कडयजुयलं पलाइउमारद्धो। विट्ठो उज्जाणवालोए। अक्कंदियं च णाए। धाविया दंडवासिया। पलाणो तक्करो। दिट्ठो य दंडवासिएहि । धाविया एए तक्कराणुसारेण । तक्करो वि दुयगमणखीणसत्ती साससमावरियाणणो 'न चएमि अओ परं पलाइउ' ति पुव्वभंडियं चेव पविट्ठो तं जिण्णदेवउलं, जत्थ अरुणदेवो त्ति। एत्यंतरम्मि य उइण्णं अरुणदेवस्स पुटवभवसंचियं, जहा 'तहिं गया चेव सूलियाए भिन्ना तुमं, वीसरिया वेला अम्हाणं छुहाभिभूयाणं' एवंविहवयणदुच्चरियपच्चयं संकिलिटु कम्मं । तक्करो वि य 'एस एत्थ उवाओ' ति अरुणदेवसमीवे मेल्लिऊण कडयजुवलयसणाहं छुरियं पुटवभंडियं चेव अहिडिओ अंधयारसंगयं सिहरदेसं । उढिओ अरुणदेवो। दिटुमणेण कडयजवलं छुरिया य। कम्मपरिणइवसेण गहियं च ण । 'नूणमेयं देवयाविइन्न' ति संगोवियं उड्ढियाए। गहिया छुरिया । ‘एसा पुण कह' ति निस्वयंतस्स समागया दंडवासिया। ते पेच्छिऊण संखद्धो अरुणदेवो । गहीता तस्करेण । दृष्टं तस्या महामहाघ माणिक्यकटक युगलम् । अर्धगृहीतम नेन यावदतिगाढत्वेन न शक्यते ग्रहीतुम् । कृष्टा तेन छुरिका, मुद्रितं तस्या वदनम्, छिन्नौ च हस्तौ। गृहोत्वा च कटकयुगलं पलायितुमारब्धः । दृष्ट उद्यानपाल्या। आक्रन्दितं च तया। धाविता दण्डपाशिकाः । पलायितस्तस्करः । दृष्टश्च दण्डपाशिकः । धाविता एते तस्करानुसारेण । तस्करोऽपि द्रुतगमनक्षीणशक्तिः श्वाससमापूरिताननो 'न शक्नोम्यतःपरं पलायितुम्' इति पूर्वभाण्डिकमेव प्रविष्टस्तद् जीर्णदेवकुलम्, यत्रारुणदेव इति । अत्रान्तरे चोदीर्णमरुणदेवस्य पूर्वभवसञ्चितम्, यथा 'तत्र गतव शलिकया भिन्ना त्वम्, विस्मृता वेलाऽस्माकं क्षुदभिभूतानाम्' एवंविधवचनदुश्चरितप्रत्ययं संक्लिष्टकर्म । तस्करोऽपि च ‘एषोऽत्रोपायः' इति अरुणदेवसमीपे मुक्त्वा कटकयुगलसनाथां छुरिकां पर्वभाण्डिकमेवाधिष्ठितोऽन्धकारसङ्गतं शिखरदेशम् । उत्थितोऽरुणदेवः । दृष्टमनेन कटकयुगलं छरिका च। कर्मपरिणतिवशेन गहीतं च तेन । 'ननमेतद देवतावितीर्णम' इति सङ्गोपितमध्विकायाम् । गृहीता छरिका । 'एषा पुनः कथम्' इति निरूपयत: समागता दण्डपाशिका । तान् प्रेक्ष्य उद्यान में स्थित देविनी को चोर ने पकड़ लिया। उसके अत्यधिक कीमती मणिनिर्मित कड़े का जोड़ा देखा। चोर ने आधा ग्रहण किया, अत्यन्त गाढ़ा होने के कारण ले नहीं सका । उसने तलवार खींची, उसके मुंह को ढंक दिया और दोनों हाथ काट डाले । कड़े के जोड़े को लेकर भागने लगा । उद्यानपाली ने देख लिया। वह चिल्लायी। सिपाही दौड़े। चोर भागा। सिपाहियों ने देख लिया। वे चोर के पीछे भागे। चोर भी शीघ्रगति के कारण क्षीणशक्ति वाला होकर श्वास से भरे हुए मुँहवाला हो गया। 'इससे आगे भागने में समर्थ नहीं हूँ' - ऐसा भूषण के साथ ही उस पुराने देवमन्दिर में घुस गया, जहाँ पर कि अरुणदेव था। इसी बीच अरुणदेव का वहाँ जाते ही, 'तुम शूली से भिद गयी थीं जो कि भूख से व्याकुल हमारा समय भूल गयीं'--ऐसे वचन रूप दुश्चरित का कारण, पूर्वभव में संचित बुरा कर्म उदय में आया। चोर भी 'यहाँ यह उपाय है' ऐसा सोचकर अरुणदेव के पास कड़े के जोड़े सहित छुरी को छोड़कर अन्धकार से युक्त शिखर पर जा बैठा । अरुणदेव उठा - इसने कड़े का जोड़ा और छुरी देखी । कर्म के फलवश उसने ग्रहण कर लिया। 'निश्चितरूप से देवी का दिया है'-ऐसा सोचकर पोटली में छुपा लिया। छुरी ली । 'यह छुरी कैसे आयी'- इस प्रकार सोचता 1. जिथं (दे०) मुदितम् । For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
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