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________________ सत्तमो भवो ६४६ 1 कालक्कमेणं । पइट्टावियंच से नामं देइणि त्ति । पत्ता कुमारिभावं । भविषव्वयानिओगेण दिन्ना अरुणदेवस्स | अवत्ते चैव विवाहे जाणवत्तेण ववहरणनिमित्तं महाकडाहं गओ अरुणदेवो । समागच्छमाणस्स विचित्तयाए कम्परिणामस्स दिवन्नं जाणवत्तं । तन्नयरवत्थव्वयमहेसर दुइओ फलहएण लंधिऊण जलनिहि लग्गो समुद्दतीरे ! कहाणयविसेसेण समागओ पाडलावहं । मणिओ य महेसरेण - कुमार, एत्थ भवओ ससुरकुलं ति; ता तहि पविसम्ह । अरुणदेवेण भणियं - अज्ज, न जुत्तो मे एयावत्थगयस्स ससुर कुलपवेसो । महेसरेण भणियं-कुमार, जइ एवं ता चिट्ठ ताव तुमं एत्थ देवउले, जाव आणेमि हट्टाओ अहं किंचि भोयणजायं ति । पडिस्सुयमरुणदेवेणं । तओ महेसरो पविट्ठो पाडलावहं । नुदन्नो अरुणदेवो तत्थ देवउले | अद्धाणखेएण य समागया से निद्दा । एत्थंतरम्मि उइण्णं देइणीए पुव्वभवसंचियं 'तुज्झ' पुण छिन्ना हत्थ त्ति, जेण सिक्कयाओ वि गिव्हिऊण सयं न भुजसि त्ति एवंविहवयणदुच्चरियपच्चयं संकिलिट्ठकम्मं । भवणुज्जाणसंठिया नाम देविनीति । प्राप्ता कुमारीभावम् । भवितव्यतानियोगेन दत्ताऽरुणदेवस्य । अवृत्ते एव विवाहे यानपात्रेण व्यवहरणनिमित्तं महाकटाहं गतोऽरुणदेवः । समागच्छतो विचित्रतया कर्मपरिणामस्य विपन्नं यानपात्रम् । तन्नगरवास्तव्य महेश्वर द्वितीयः फलकेन लङ्घित्वा जलनिधि लग्नः समुद्रतीरे । कथानकविशेषेण समागतः पाटलापथम् । भणितश्च महेश्वरेण कुमार ! अत्र भवतः श्वसुर - कुलमिति, ततस्तत्र प्रविशावः । अरुणदेवेन भणितम् - आर्य ! न युक्तो मे एतदवस्थागतस्य श्वसुर - कुलप्रवेशः । महेश्वरेण भणितम् कुमार ! यद्येवं ततस्तिष्ठ तावत् त्वमत्र देवकुले यावदानयामि हट्टादहं किञ्चिद् भोजन जातमिति । प्रतिश्रुतमरुणदेवेन । ततो महेश्वरः प्रविष्टः पाटलापथम् । निपन्नो (शयितो ) रुण देवस्तत्र देवकुले | अध्वखेदेन च समागता तस्य निद्रा । अत्रान्तरे उदीर्णं दविन्या पूर्वभवसञ्चितं ' तव पुनश्छिन्नो हस्तो इति, येन शिक्यकादपि गृहीत्वा स्वयं न भुङक्षे' इति एवंविधवचनदुश्चरितप्रत्ययं संक्लिष्टकर्म । भवनोद्यानसस्थिता हुई। उसका नाम देविनी रखा। वह कुमारीपने को प्राप्त हुई। होनहार के नियोग से अरुणदेव को दी गयी । विवाह न किये ही अरुणदेव व्यापार के लिए जहाज से महाकटाह चला गया । आते समय कर्मपरिणाम की विचित्रता से जहाज टूट गया। उस नगर के वासी महेश्वर के साथ लकड़ी के तख्ते से समुद्र पार कर समुद्र के किनारे जा लगा। कथानक विशेष से पाटलापथ आया। महेश्वरदत्त ने कहा- 'कुमार ! यहाँ पर आपके श्वसुर का निवास है अतः दोनों वहाँ प्रवेश करें (चलें ) ।' अरुणदेव ने कहा- 'आर्य ! इस अवस्था को प्राप्त हुए मुझे श्वसुर के घर में प्रवेश करना उचित नहीं है ।' महेश्वर ने कहा- 'यदि ऐसा है तो तुम यहाँ देवमन्दिर में ठहरो । जब तक मैं बाजार से कुछ भोजन सामग्री लाता हूँ ।' अरुणदेव ने स्वीकार किया। अनन्तर महेश्वरदत्त पाटलापथ में प्रविष्ट हुआ । अरुणदेव वहाँ मन्दिर में सो गया । मार्ग की थकावट के कारण उसे नींद आ गयी । इसी बीच देविनी का पूर्वभव में संचित किया हुआ, 'क्या तुम्हारे हाथ टूट गये जो कि सींके से भी लेकर स्वयं नहीं खा सकते हो' इस प्रकार के वचनरूप दुश्चरित का कारण पापकर्म उदय में आया। भवन के १. जं भणियं आमि तुझा ला Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
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