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________________ ६४८ [ समराइच्चकहा किवणभावेण तहा दुक्खपीडियाए जंपियमिणं । तुज्झ पुण छिन्ना हत्थ त्ति, जेण सिक्कयाओ वि गेण्हिऊण न भुंजसि। एत्थंतरम्मि एवंविहवसणदुच्चरियपच्चयं बद्धमिमेहि कम्म। अइक्कंतो कोइ कालो। अन्नया य विचित्तयाए कम्मपरिणामस्स भवियव्वयाए य एएसि विसिट्ठफलसाहगत्तणेण जीववीरियस्स माणतंगगणिसमीवे पत्ता इमेहि जिणधम्मबोही, गहियं सावयत्तणं, पालियं कंचि कालं। पवड्ढमाणसुहपरिणामाण य जाओ चरणपरिणामो। पवन्नाणि पध्वजं । पालियं चारितं । चरिमकाले य काऊण सलेहणं आगमणिएण विहिणा चइऊण देहपंजरं समुप्पन्नाणि सुरलोए। तत्थ वि य अहाउयं पालिऊण पढमयरमेव चओ सग्गदेवो। समप्पन्नो इहेव जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे तामलितीए नयरीए कुमारदेवस्स सेटिस्स जुज्जियाए भारियाए कुच्छिसि पुत्तत्ताए त्ति । जाओ कालक्कमेणं । पइट्ठावियं च से नाम अरुणदेवो त्ति। पत्तो कुमारभावं । एत्थंतरम्मि चुओ चंदाजीवदेवो । समुप्पन्नो पाडलावहे नयरे जसाइच्चसेटिस्स ईलुयाए भारियाए कुच्छिसि इत्थियत्ताए। जाया ............... तथा दुःखपीडितया जल्पितमिदम् - तव पुनदिछन्तौ हस्ताविति, येन शिवयकादपि गृहीत्वा न भङ क्षे। अत्रान्तरे एवंविधवचनदुश्चरितप्रत्ययं बद्धमाभ्यां कर्म । अतिक्रान्तः कोऽपि कालः । अन्यदा विचित्रतया च कर्मपरिणामस्य भवितव्यतायाश्चैतयोविशिष्टफलसाधकत्वेन जीववीर्यस्य मानतुङ्गगणिसमीपे प्राप्ताऽऽभ्यां जिनधर्मबोधिः, गृहीतं श्रावकत्वम, पालितं कञ्चित्कालम् । प्रवर्धमानशभपरिणामयोश्च जातश्चरणपरिणामः । प्रपन्नौ प्रवज्याम् । पालितं चारित्रम्। चरमकाले च कृत्वा संलेखनामागमभणितेन विधिना त्यक्त्वा देहपज्जरं समुत्पन्नौ सुरलोके । तत्रापि च यथायुष्कं पालयित्वा प्रथमतरमेव च्युतः स्वर्ग देवः । समुत्पन्न इहैव जम्बूद्वीपे द्वीपे भारते वर्षे ताम्रलिप्त्यां नगर्यो कुमारदेवस्य श्रेष्ठिनो युजिकाया भार्यायाः कुक्षौ पुत्रतयेति । जातः कालक्रमेण । प्रतिष्ठापितं च तस्य नाम अरुणदेव इति । प्राप्तः कमारभावमा अत्रान्तरे श्च्यूतश्चन्द्राजीवदेवः, समुत्पन्नः पाटलापथे नगरे यशआदित्यवेष्ठिन ईलुकाया भार्यायाः कुक्षौ स्त्रोतया। जाता कालत्रमेण । प्रतिष्ठापितं च तस्या होने तथा दुःख से पीडित होने के कारण यह कहा-'क्या तुम्हारे दोनों हाथ टूट गये थे जो कि छीके से भी लेकर नहीं खा सके ? इसी बीच इस प्रकार के वचनरूप दुश्चरित के कारण दोनों ने कर्म बाँधा । कुछ समय बीत गया। एक बार कर्म के परि गाम की विचित्रता से इन दोनों की होनहार से लोगों को सामर्थ्य विशिष्ट फल की साधक होने से दोनों ने मानतंग गणि के समीप जैन धर्म का ज्ञान प्रप्त कर लिया, श्रावकधर्म ग्रहण किया और कुछ समय पाला। दोनों के शुभपरिणामों की वृद्धि होने के कारण चारित्ररूप भाव हुए। दोनों ने दीक्षा ले ली। चारित्र को पाला। अन्त समय सल्लेखना धारण कर शास्त्रोक्त विधि से शरीररूपी पिंजड़े को त्यागकर स्वर्गलोक में उत्पन्न हुए । वहाँ पर आयु पालन कर पहले स्वर्ग का देव च्युत हुआ। इसी जम्बूदीप के भारतवर्ष में 'ताम्रलिप्ती नगरी में 'कुमार देव' सेठ की 'युजिका' नामक पत्नी के गर्भ में पुत्र के रूप में आया। कालक्रम से उत्पन्न हुआ। उसका नाम अरुणदेव रखा गया। कुमारावस्था को प्राप्त हुआ। इसी बीच चन्द्रा का जीव देव च्युत हुआ। पाटलापथ नगर में यशादित्य सेठ की ईलुका पत्नी के गर्भ में स्त्री के रूप में आया । कालक्रम से (वह) उत्पन्न Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
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