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________________ सत्तमो भवो ] ६५५ संभरिया अम्हेहिं पुव्वजाई । पाविया जिणधम्मबोही । एवंविहा कम्मपरिणइ त्ति अवगयं अट्टज्झाणं, सप्पन्न संवेगो । तापच्चवखेहि भयवं अम्हाणमणसणं ति । अवणेहि जाइजरामरणरोग सोगभयं । भयवया भणियं - अणुरुवमेयं इमाए अवत्थाए । विसुद्धपच्चक्खाणं हि अवणेइ भयपरंपरं, उच्छाएइ दोग्इं, घडेइ सोगईए, साहेइ सुरनरसुहाई, जणेइ परमनिव्वाणं । तओ नरवइसे ट्टिसंमएण पच्चक्खायमणसणं, अहिणंदिओ र्णोह भयवं अमरेसरो । भणियं च हिं- भयवं, सुलद्धं णे माणुसत्तणं, जत्थ तुमं धम्मसारही । विचित्तकम्मपरिणामवस्याणं च जं किंचि वसणमेयं । ता आइसउ भयवं, कि अम्हेहि कायव्वं ति । भयवया भणियं कथं कायव्वं । तहावि छड्डेह सव्वभावेसु दुक्खमूलं ममत्तं भावेह निरवसेसेसु जीवेसु परमपयकारणं मेत्ति, दुगुंछेह सुद्धभावेणं पुव्वदुक्कडाई, बहुमन्नेह तित्थयरपणीए नाणदंसणचरित्ते, चितेह पमायवज्जणेण परमपयसरूवं ति । पडिस्सुयमणेहिं । पारद्धं च एवं जहासत्तीए । एत्थंतरम्मि संवेगमागएणं जंपियं नरिदेणं - भयवं, जइ एद्दहमेत्तस्स वि टुक्कडस्स ईइसो प्राप्ता जिनधर्मबोधिः । एवंविधा कर्मपरिणतिरित्यपगत मार्तध्यानम्, समुत्पन्नः संवेगाः । ततः प्रत्याख्याहि (प्रत्याख्यापय) भगवन् ! आवयोरनशनमिति । अपनय जातिजरामरणरोगशोकभयम् । भगवता भणितम् - अनुरूपमेतदस्या अवस्थायाः । विशुद्धप्रत्याख्यानं हि अपनयति भवपरम्पराम्, उच्छादयति दुर्गतिम्, घटयति सुगत्या, साधयति सुरनरसुखानि, जनयति परमनिर्वाणम् । ततो नरपतिश्रेष्ठिसम्मतेन प्रत्याख्यातमनशनम्, अभिनन्दितस्ताभ्यां भगवानमरेश्वरः । भणितं च ताभ्याम् - भगवन् ! सुलब्धमावयोर्मानुषत्वम्, यत्र त्वं धर्मसारथिः । विचित्रकर्मपरिणामवशगानां च यत् किञ्चिद् व्यसनमेतद् । तत आदिशतु भगवान्, किमावाभ्यां कर्तव्यमिति । भगवता भणितम् - कृतं कर्तव्यम्, तथापि मुञ्चतं सर्वभावेषु दुःखमूलं ममत्वम् भावयतं निरवशेषेषु जीवेषु परमपदकारणं मैत्रीम्, जुगुप्सेथां शुद्धभावेन पूर्वदुष्कृतानि, बहु मन्येथां तीर्थंकरप्रणीतानि ज्ञानदर्शनचारित्राणि, चिन्तयतं प्रमादवर्जनेन परमपदस्वरूपमिति । प्रतिश्रुतमाभ्याम् । प्रारब्धं चैतद्यथाशक्ति । अत्रान्तरे संवेगमागतेन जल्पितं नरेन्द्रेण भगवन् - यदि एतावन्मात्रस्यापि दुष्कृतस्येदृशो धर्म का ज्ञान प्राप्त हुआ। 'कर्म का फल ऐसा होता है'- इस प्रकार आर्तध्यान जाता रहा, विरक्ति उत्पन्न हुई। अनन्तर 'भगवन् ! हम दोनों के अनशन को तुड़वाओ, जन्म, जरा, मरण, रोग, शोक और भय को दूर करो।' भगवान् ने कहा - 'इस अवस्था के यह अनुरूप है। विशुद्ध त्याग संसार परम्परा का नाश करता है, दुर्गति को नष्ट करता है, सुगति को प्राप्त कराता है, देव और मनुष्य के सुखों का साधन करता है । उत्कृष्ट मोक्ष को उत्पन्न करता है ।' अनन्तर राजा और सेठ की सम्मति से अनशन तोड़ा, उन दोनों का भगवान् अमरेश्वर ने अभिनन्दन किया। उन दोनों ने कहा- 'भगवन् ! हम लोगों ने सुन्दर मनुष्यभव पाया जहाँ कि आप जैसे धर्मसारथी हैं । विचित्र कर्म परिणामों के वशीभूत हुए लोगों के लिए यह व्यसन है । अतः भगवान् आज्ञा दें, हम दोनों क्या करें ?' भगवान् ने कहा- 'कर्तव्य कर लिया तथापि समस्त पदार्थों में दुःख के मूल ममत्व को त्यागो । सम्पूर्ण जीवों के प्रति मोक्षपद की कारणभूत मंत्री की भावना करो, शुद्धभाव से पहिले किये हुए दुष्कृतों से घृणा करो, तीर्थकरों के द्वारा प्रणीत सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र का आदर करो, प्रमाद छोड़कर मोक्ष के स्वरूप को विचारो ।' इन दोनों ने स्वीकार किया और इसे यथाशक्ति प्रारम्भ कर दिया । इसी बीच वैराग्य को प्राप्त राजा ने कहा- 'भगवन् ! यदि इतने से ही पाप का ऐसा फल हुआ तो उत्कट Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
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