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________________ ६५६ [ समराइच्चकहा विवाओ, ता किं पुण अणुहविस्सं ति एए उद्दामपमायवसया अणवेक्खियकारिणो अम्हारिसा पाणिणो त्ति। भयवया भणियं-महाराय, ईइसी चेव एसा कम्मपरिणई, एइहमेत्तपमायजणियस्स चेव एवमाइयं फलं; अहिययरसंचियस्स उ तिरियनारएस ति । तत्थ तिव्याओ विडंबणाओ पहयकालाओ य। तयवेक्खाए य ज किंचि एवं ति। एएणं चेव कारणेणं जंपियं तिलोयगुरुणा । सुहाहिलासिणा ख थेवो वि वज्जियव्वो पमाओ। अवि य । भक्खियव्वं विसं, संतप्पियन्वो वाही, कोलियन्वं जलणेणं, कायव्वा सत्तुसंगई, वसियध्वं भयंगेहि न उण कायन्वो पमाओ। इहलोयावगारिणो विसाई, उभयलोयावगारी य पमाओ त्ति । अवि य।पमायसामथओ, महाराय, परिच्चयंति जीवा सयत्थं, पयटंति सरहसमकज्जे. न जोएंति आयई, न पेच्छंति पत्थुयं, न मुणंति गुरुलाघवं, न बहु मन्नंति गुरुं, न भाति सहासियं । तओ य ते बंधिऊण पावकम्मयाइं विवाएण तेसि नारयाइएसु परमासुहट्ठाणेसु नत्थि तं संकिलेसटाणं, जं न पाति ति। राइणा भणियं-भयवं, अस्थि उण कोइ उवाओ इमस्स आसेवियस्स। भयवया भणियं-अत्थि। राइणा भणियं-कोइसो । भयवया भणियं-सव्वारंभपरिग्गहचाएण विपाकस्ततः किं पुनरनुभविष्यन्त्येते उद्दामप्रमादवशगा अनवेक्षित कारिणोऽस्मादशाः प्राणिन इति । भगवता भणितम----महाराज ! ईदृश्येवैषा कर्मपरिणतिः, एतावन्माप्रमादजानतस्यैव एवमादिकं फलम, अधिकतरसंचितस्य तु तिर्यङ नारकयोरिति । तत्र तीव्रा विडम्बनाः प्रभतकालाश्च । तदपेक्षया च यत्किञ्चिदेतदिति। एतेनैव कारणेन जल्पितं त्रिलोकगुरुणा । सुखाभिलाषिणा खल स्तोकोऽपि वर्जयितव्यः प्रमादः । अपि च, भक्षयितव्यं विषम्, सन्तप्तव्यो व्याधिः, क्रीडितव्यं ज्वलनेन, कर्तव्या शत्रसङ्गतिः, वस्तव्यं भुजङ्गः न पुनः कर्तव्यः प्रमादः । इहलोकापकारिणो विषादयः, उभयलोकापकारी च प्रमाद इति । अपि च, प्रमादसामर्थ्यतो महाराज ! परित्यजन्ति जीवाः स्वार्थम्, प्रवर्तन्ते सरभसमकार्ये, न पश्यन्त्यायतिम्, न प्रेक्षन्ते प्रस्तुतम्, न जानन्ति गुरुलाघवम्, न बहु मन्यते गरुम, न भावयन्ति सुभाषितम् । ततश्च ते बद्ध्वा पापकर्माणि विपाकेन तेषां नारकादिकेष परमाशभ स्थानकेष नास्ति तत्संक्लेशस्थानम्, यन्न प्राप्नुवन्ति इति। राज्ञा भणितम्-भगवन ! अस्ति पनः कोप्यपायोऽस्यासेवितस्य । भगवता भणितम्--अस्ति। राज्ञा भणितम् ---कीदृशः । भगवता प्रमाद के वश हए, बिना विचारे कार्य करनेवाले हम जैसे प्राणी क्या अनुभव करेंगे ?' भगवान् ने कहामहाराज ! यह कर्मपरिणति ऐसी ही है, इतने से प्रमाद उत्पन्न होने का इस प्रकार फल है, अत्यधिक संचय करनेवालों का फल तिर्यंच और नरक योनि है। वहाँ एक तो महाकष्ट है और फिर अधिक काल तक इसे सहन करना, उसकी अपेक्षा यह कुछ भी नहीं है, बहुत थोड़ा है। इसी कारण तीनों लोकों के गुरु ने कहा है-'सुख के अभिलाषी को थोडे से भी प्रमाद से बचना चाहिए।' और भी-विष का भक्षण कर ले, रोग से दःखी हो ले. अग्नि से खेल ले, शत्र की संगति कर ले, सर्षों के साथ निवास कर ले, किन्तु प्रमाद न करे । विष आदि तो इस लोक के ही अपकारी हैं, किन्तु प्रमाद उभयलोक का अपकार करनेवाला है। दूसरी बात यह है महाराज ! कि प्रमाद की सामर्थ्य से जीव आत्मार्थ को त्याग देते हैं। सरभ के समान कार्य में प्रवर्तते हैं, आपत्ति को नहीं देखते हैं, प्रस्तुत को नहीं देखते हैं, : गुरुता लघुता को नहीं जानते हैं, गुरु का आदर नहीं करते हैं और सूक्तियों को नहीं भाते हैं। अनन्तर वे पापकर्मों को बाँधकर उनके फलस्वरूप नरकादि परम अशुभ स्थानों में, (अथवा) ऐसा कोई संक्लेश स्थान नहीं, जिसे ये न प्राप्त करते हों। राजा ने कहा-'इसके न सेवन का कोई उपाय है ?' भगवान् ने ...१.. तत्तं-डे. ज्ञा.। . . ..... . .. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
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