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________________ सतमो भवो] ६५७ चरित्तमेत्तधणेहि अप्पमायाराहणं ति। अप्पमाओ हि नाम, महाराय, एगंतियं कम्मवाहिओसहं अणिदियं सव्वलोए, आणंदियं बहाणं, सव्वस्सं महाणुभावस्स, निप्पच्चवायं उभयलोएसं, उच्छायणं मिच्छत्तस्स, संवडढणं नाणपरिणईए, जणयं अप्पमायाइसयस्स, साहणं सयलकल्लाणाणं, निव्वत्तय परमारोग्गसोक्खस्स । पडिवन्नपमाया ख पाणिणो तयप्पभइमेव अप्पमायसामत्थेण पवड्ढमाणसंवेगा निरइयारसोलयाए खर्वेति महापमायसंचियाई कम्माई, अभावओ निमित्तस्स न बंधंति य नवाई। तओ य, ते देवाणप्पिया, खविऊण कम्मजालं संपाविऊण केवलं अपुणरागमणं जाइजरामरणरोगसोगरहियं निरुवमसुहसमेयं मोक्खमणगच्छंति, न सेवंति ते पुणो पमायं ति । राइणा भणियं-भयवं, किन्न पाडवन्नो अप्पमाओ एएहि, जेण एइहमेत्तं पि पमायचेट्टियं एएसिमेवं परिणयं ति । भयवया भणियं-महाराय, पडिवन्नो; कि तु विसमा कम्मपरिणई; न अप्पमायमेत्तण निरवसेसा खवोयइ, अवि य अप्पमापाइसएणं, न पडिवन्नो य एसो इमेहि। अप्पमायमेत्तेण वि य खवियाई एवं विहाई भणितम-सर्वारम्भपरिग्रहत्यागेन चारित्रमात्रधनैरप्रमादाराधनमिति । अप्रमादो हि नाम महाराज ! ऐकान्तिकं कर्म व्याध्यौषधम्, अनिन्दितं सर्वलोके, आनन्दितं बुधानाम्, सर्वस्वं महानुभावस्य, निष्प्रत्यवायमुभयलोकेषु, उत्सादनं मिथ्यात्वस्य, संवर्धनं ज्ञानपरिणत्या:. जनकमप्रमादातिशयस्य, साधनं सकल कल्याणानाम्, निर्वर्तकं परमारोग्यसौख्यस्य। प्रतिपन्नप्रमादा: खल प्राणिनस्त प्रभूत्येवाप्रमादसामोन प्रवर्धमानसंवेगा निरतिचारशीलतया क्षपयन्ति महाप्रमादसञ्चितानि कर्माणि, अभावतो निमित्तस्य न बध्नन्ति च नवानि । ततश्च ते देवानुप्रिय ! क्षपयित्वा कर्मजालं सम्प्राप्य केवलमपुनरागमनं जातिजरामरणरोगशोकरहित निरुपमसुखसमेतं मोक्षमनुगच्छन्ति, न सेवन्ते ते पन: प्रमादमिति । राज्ञा भणितम्-भगवन् ! किन्न प्रतिपन्नोऽप्रमाद एताभ्याम, येन एतावन्मात्रमपि प्रमादचेष्टितमेतयोरेवं परिणतमिति । भगवता भणितममहाराज ! प्रतिपन्नः, किन्तु विषमा कर्मपरिणतिः, नाप्रमादमात्रेण निरवशेषा क्षप्यते, अपि चाप्रमादातिशयेन, न प्रतिपन्नश्चेष आभ्याम् । अप्रमादमात्रेणापि च पितान्येवंविधानि बह कहा-'है ।' राजा ने कहा-'कैसा ?' भगवान् ने कहा -'समस्त आरम्भ और परिग्रह का त्यागकर चारित्रमात्र, धनवालों के द्वारा अप्रमाद की आराधना होती है। महाराज ! अप्रमाद कर्मरूपी रोग की एकमात्र औषधि है, जो समस्त लोक में अनिन्दित है, विद्वानों को आनन्द देनेवाला है, महानुभाव का सर्वस्व है, दोनों लोकों में निर्दोष है, मिथ्यात्व को नष्ट करनेवाला है, ज्ञानरूप फल को बढ़ाता है, अप्रमाद की अतिशयता का जनक है, समस्त कल्याणों का साधन है और परम आरोग्यरूपी सूख की उत्पत्ति करनेवाला है। अप्रमाद को प्राप्त हए प्राणी उसी समय से अप्रमाद के सामर्थ्य से परम सवेग को बढ़ाकर, अतिचार (दोष) रहित आचरण से महाप्रमाद द्वारा संचित कर्मों को नष्ट करते हैं और निमित्त (कारण) के अभाव में नये कर्मों को नहीं बाँधते हैं । अनन्तर हे देवानप्रिय !कर्मसमूह को नाशकर केवलज्ञान प्राप्त कर, जिससे पुन: आगमन नहीं होता ऐसे जन्म, जरा, मरण, रोग और शोक से रहित अनुपम सुख से युक्त मोक्ष को प्राप्त करते हैं, पुनः प्रमाद का सेवन नहीं करते हैं। राजा ने कहा-'क्या इन दोनों ने अप्रमाद प्राप्त नहीं किया था, जिससे इतनी-सी प्रमाद-चेष्टा का फल इन लोगों को इस प्रकार मिला ?' भगवान् ने कहा-'महाराज ! प्राप्त किया था, किन्तु कर्म का फल भयंकर है, अप्रमाद मात्र से वह सम्पर्ण नष्ट नहीं होता है अथवा अप्रमाद की अधिकता से इन दोनों ने (कर्म फल) नहीं प्राप्त किया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
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