SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 208
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [समराइच्चकहा बहुविहाई बहुयाइं एएहि, छिन्नो य पुणो वि एवंविहदुच्चरियहेऊ अणुबंधो सेस कम्मयाणं, भावियं बीयं अप्पनायाइसयस्स । ता धन्नाणि एयाणि। एदहमेत्तो चेव एएसि एस किलेसो। अओ चेव भणियं भयवया विइय संसारमोक्खसरूवेण पइसमयमेव कायन्वो अप्पमाओ, विसेसेण संभरियव्वाई पुव्वदुक्कडाई, संवेगाइसएण निदियव्वाणि, अप्पणा विसुद्धविरइभावेण निवेइयव्वाणि गुरुणो, निवियप्पेण कायव्वं विहिपुव्वयं पच्छित्तं । एवं विवक्खभूयविसिटुसुहपरिणामनिदिणाइजलणदड्ढाणं कम्मबीयाणं अप्पमायाइसयसमुन्भूयसुहझाणवणदवाणुप्पत्ताण वा न होइ नियमेण विवागंकुरप्पसूई, न उण सेसयाणं । ता एवं ववत्थिए पत्ते वि अप्पमाए पमायचेट्टियसंजायकम्मपरिणई अविरुद्ध ति । तओ पडिबुद्धो राया। करावियं सव्वबंधणविमोयणाइयं उचियकरणिज्ज। पवन्नो पव्वज्जं सह जसाइच्चमहसरेहि । एयं च वइयरमायण्णिऊण संजायपच्छायावो समागओ सो कडयचोरो । निव्वेयसारं भणियं च णेण-भयवं, पावकम्मो अहं। मए कयमिणं निसंसरियं, नावेक्खिओ उभयलोयसाहारणो धम्मो, बहु मन्निओ अहम्मो, दूसियं माणुसत्तणं, अंगीकया दुक्खपरंपरा । ता विधानि बहुकान्येताभ्याम्, छिन्नश्च पुनरप्येवंविधदुश्चरितहेतुरनुबन्धः शेषकर्मणाम्, भावितं बीजमप्रमादातिशयस्य । ततो धन्यावेतौ। एतावन्मात्र एवैतयोरेष क्लेशः। अत एव भणितं भगवता विदितसंसारमोक्षस्वरूपेण प्रतिसमयमेव कर्तव्योऽप्रमाद:, विशेषेण सस्मर्तव्यानि पूर्वदुष्कृतानि, संवेगातिशयेन निन्दितव्यानि, आत्मना विशुद्धविरतिभावेन निवेदयितव्यानि गुरवे, निर्विकल्पेन कर्तव्यं विधिपूर्वकं प्रायश्चित्तम् । एवं विपक्षभूतविशिष्टशुभपरिणामनिन्दनादिज्वलनदग्धानां कर्मबीजानामप्रमादातिशयसमुद्भूतशुभध्यानवनदवानुप्राप्तानां वा न भवति नियमेन विपाकाङ कुरप्रसूतिः, न पुनः शेषाणाम् । तत एवं व्यवस्थिते प्राप्तेऽप्यप्रमादे प्रमादचेष्टितसञ्जातकर्मपरिणतिरविरुद्धेति । ततः प्रतिबद्धो राजा। कारितं सर्वबन्धनमोचनादिकमुचित करणीयम्। प्रपन्नः प्रव्रज्यां सह यशआदित्यमहेश्वराभ्याम । एतं च व्यतिकरमाकर्ण्य सजातपश्चात्तापः समागतः स कटकचौरः । निर्वेदसारं भणितं च तेन-भगवन् ! पापकर्माऽहम् । मया कृतमिदं नृशंसचरितम्, नापेक्षित उभयलोकसाधारणो धर्मः, बहु मतोऽधर्मः, दूषितं मानुषत्वम्, अङ्गीकृता दुःख परम्परा । अप्रमाद मात्र से भी इन दोनों ने इस तरह के अनेक प्रकार के बहुत से कर्मों का नाश किया और इस तरह के दुश्चरित के कारणरूप शेष कर्मों के बन्ध को छेदा है और अप्रमाद के अतिशय के बीज की भावना को।' अनन्तर ये दोनों धन्य हुए। इन दोनों का यह क्लेश इतना ही है । अतएव भगवान् ने कहा है कि संसार और मोक्ष के स्वरूप को जानकर प्रतिसमय अप्रमाद करना चाहिए, पहले किये हुए पागों का विशेष स्मरण रखना चाहिए और वैराग्य की अधिकता से निन्दा करनी चाहिए, अपनी विशुद्ध विरति के भाव से गुरु से निवेदन करना चाहिए, निर्विकल्प रूप से विधिपूर्वक प्रायश्चित्त करना चाहिए। इस प्रकार प्रतिपक्षी विशेष शुभ परिणाम, निन्दनादि की अग्नि में जले हुए कर्मबीज वालों का अप्रमाद की अधिकता से उत्पन्न शुभध्यान रूप वनाग्नि को प्राप्त प्राणियों के नियम से फलरूप (नये) अंकुर की उत्पत्ति नहीं होती है। बचे हुए कर्मों के विषय में ऐसा नहीं है अर्थात् उनका फल तो भोगना ही पड़ता है। ऐसी स्थिति में अप्रमाद को प्राप्त कर लेने पर भी प्रमादचेष्टा से उत्पन्न कर्म का फल अविरुद्ध है ।' अनन्तर राजा प्रतिबुद्ध (जागृत) हुआ। समस्त बन्धनों को छुड़ाने आदि योग्य कार्यों को कराया। य शादित्य और महेश्वर के साथ दीक्षा प्राप्त कर ली। इस घटना को सुनकर जिसे पश्चात्ताप उत्पन्न हुआ है ऐसा वह कड़े का चोर आया। विरक्त होकर उसने भगवान् से कहा--'भगवन् ! मैंने पापकर्म किया है। मैंने यह नसभापरण किया है। मैंने उभय लोक के लिए समान धर्म की अपेक्षा नहीं की, अधर्म को Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy