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________________ ६५६ सत्तमो भवो] कि इमिणा वयणमेतफलेग वायावित्थरेगं । भयवं, अवस्समहं पाणे परिच्चएमि । ता एवं ववथिए जहाजतमाइससु ति। तओ दिन्नो भयवया उवओगो, आहोइओ से नियमकरणाणबंधी निच्छओ। चितियं च णेणं-न तोरए इमो अहिययरगुणभायण काउं, अक्कतो मोहपरमबंधुणा सोएण, पणट्ठा सुद्धधीरया, समागयं लोइयसुंदरतणं । ता इमं एत्थ पत्तयालं ति। समालोचिऊण साहिओ अणसणविही। पडिवन्नं चोरेण अणसणं । दिन्नो से नमोक्कारो, पडिच्छिओ चोरेण । निदिओ बहुविहं अप्पा । वंदिओ भयवं । अहाउयक्खएणं च कालगओ अरुणदेवो देइणो य तक्करो य, समप्पन्नाणि सुरलोए। ता एवं ववत्थिए असाररज्जसंसाहणत्थं महासंगामो त्ति असोहणमणुचिट्ठियं भवया। एवं सोऊण समुत्पन्नचरणपरिणामेण भणियं सेणकुमारण-भयवं, कुलपरिहवामरिसिएणाणुचिट्ठियमिणं, असुंदरं च त्ति अवगमियाणि । सुओ भयवओ सयासे इमस्स उवसमोवाओ। ता किमन्नेण; जइ उचिओ अहं पव्वज्जाए, ता करेह अणुग्गहं, देह मम एवं ति । भयवया भणिय--- साहु, भो देवाणुप्पिया, साहु, सोहणमझवसियं । हेओ चेव एस संसारो। विवेगसंपन्नो गुरुगणबहततः किमनेन वचनमात्रफलेन वागविस्तरेण । भगवन् ! अवश्यमहं प्राणान् परित्यजामि । तत एवं व्यवस्थिते यथायुक्तमादिशेति । ततो दत्तो भगवता उपयोगः, आभोगितस्तस्य नियमकरणानुबन्धी निश्चयः। चिन्तितं च तेन-न शक्यतेऽयमधिकतरगुणभाजनं कर्तुम्, आक्रान्तो मोहपरमबन्धना शोकेन, प्रनष्टा शद्धधीरता, समागतं लौकिकसुन्दरत्वम् । तत इदमत्र प्राप्तकालमिति समालोच्य कथितोऽनशनविधिः । प्रतिपन्न चौरेणानशनम् । दत्तस्तस्य नमस्कारः । प्रतीष्टश्चौरेण । निन्दितो बहुविधमात्मा। वन्दितो भगवान् । यथायुष्कक्षयेण च कालगतोऽरुणदेवो देविनी च तस्कर इच, समुत्पन्नाः सुरलोके । तत एवं व्यवस्थितेऽसारराज्यसंसाधनार्थ महासंग्राम इत्यशोभनमनुष्टितं भवता । एवं श्रुत्वा समुत्पन्नचरणपरिणामेन भणित सेनकुमारेण-भगवन् ! कुलपरिभवाषितेनानुष्ठितमिदम् , असुन्दरं चेत्यवगतमिदानीम् । श्रुतो भगवतः सकाशेऽस्योपशमोपायः । ततः किमन्येन, यद्यचितोऽहं प्रव्रज्यायास्ततः कुरुतानुग्रहम्, दत्त ममैतामिति । भगवता भणितम् - साधु भो देवानप्रिय ! साधु, शोभनमध्यवसितम् । हेय एवैष संसारः। विवेकसम्पन्नो गुरुगुण बहुम, नीति बहुत माना, मनुष्यभव को दूपित किया, दुःख की परम्परा को अंगीकार किया। अतः वचनमात्र फलवाली इस वाणी के विस्तार से क्या, भगवन् ! मैं अवश्य ही प्राणों का परित्याग करता हूँ, तो ऐसी स्थिति में यथायोग्य आदेश दीजिए। अनन्तर भगवान् ने ध्यान लगाया। उसका नियमपूर्वक अपने प्राणों का परित्याग करने सम्बन्धी निश्चय था। भगवान् ने सोचा--इसे अधिक गुण का पात्र नहीं बनाया जा सकता, मोह के परमबन्धु शोक से (यह आक्रान्त है, शुद्ध धैर्य नष्ट हो गया है, लौकिक सुन्दरता (इसके) आ गयी है । तो 'यहाँ यह मृत्यु आ गयी है'--- ऐसा विचारकर अनशन की विधि कही। चोर ने अनशन स्वीकार किया । उसे नमस्कार मन्त्र दिया, चोर ने स्वीकार किया। अनेक प्रकार से अपनी निन्दा की। भगवान की वन्दना की। आयुकर्म के क्षयानुसार मृत्यु को प्राप्त कर अरुणदेव, देविनी और चोर स्वर्ग में उत्पन्न हुए। तो ऐसी स्थिति में असार राज्य का साधन करने के लिए महासंग्राम कर आपने अशुभ कार्य किया है--ऐसा सुनकर जिसे चारित्ररूप (शुभ) परिणाम उत्पन्न हो गये हैं, ऐसा सेनकुमार बोला- 'भगवन् ! कुल के पराभव से उत्पन्न रोष के कारण मैंने यह (संग्राम) किया है, यह ठीक नहीं (असुन्दर) है-ऐसा अब मैंने जाना है। भगवान् के ही सभीप इसके उपशम का उपाय भी सुना । अतः अन्य से क्या, यदि मैं दीक्षा के योग्य हूँ तो अनुग्रह करो, मुझे दीक्षा दो।' भगवान् ने कहा-'हे देवानुप्रिय ! ठीक है, अच्छा निश्चय किया है । यह संसार छोड़ने योग्य ही है । तुम विवेक सम्पन्न हो, गुणों के गौरव से सम्मान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
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