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________________ ६७० [ समराइच्चकहा हि उचिओ, जओ आसन्नो से विवाहसमओ ति। चितिऊण पेसिया दिसोदिसं रायउत्तरूवविन्नाणपरियाणणनिमित्तं वियड्ढा नियपुरिसा। भणिया य एए-आणेयव्वा तुन्भेहि रयणवईरूवजोग्गा रायउत्तपडिच्छंदया कलाकोसल्लपिसुणयं च किंचि अच्चब्भुयं ति। [जं देवी आणवेइ ति] गया दिसोदिसं। दिवा य हि बहवे रायउत्ता, न उण रयणवईरूवजोग ति। तहावि जे मणागं सुंदरयरा, ते आजिहिया तेहिं । गहियं च कलाकोसल्लपिसुणयं पत्तच्छेज्जाइ। समागया अन्ने अओझाउरि। दि@ो य तेहिं राहावेहेण धणुव्वेयमब्भसंतो गुणचंदो। विम्हिया चित्तेण। पविट्ठो नरि कुमारो। चितियं च हिं - अहो से रूवं, अहो कलापगरिसो। सव्वहा अणुरूवो एस रायधूयाए। कि तु न तीरए एयस्स संपुण्णपडिच्छंदयालिहणं, विसेसओ सइदंसणम्मि। जंपियं चित्तमइणा-अरे भूसणय, दिळं तए अच्छरियं । तेण भणियं-सुठ्ठ दिळं, किं तु विसण्णो अहं । चित्तमइणा भणियंअरे केण कज्जेण। भूसणेण भणियं-असमत्थो जेण देवीसंदेसयं संपाडेउं । चित्तमइणा भणियं'कहं विय' । भूसणेण भणियं-अरे कहमम्हेहि एयस्स पडिच्छंदओ लिहिउं तीरइ ति। चित्तमइणा विज्ञानरुचितः, यत आसन्नस्तस्या विवाहसमय इति । चिन्तयित्वा प्रेषिता दिशि दिशि राजपुत्ररूपविज्ञानपरिज्ञाननिमित्तं विदग्धा निजपुरुषाः। भणिताश्चैते-आनेतव्या युष्माभी रत्नवतीरूपयोग्या राजपुत्रप्रतिच्छन्दकाः कलाकौशल्यपिशुनकं च किञ्चिदत्यद्भुतमिति । (यद् देव्याज्ञापयतीति) गता दिशि दिशि । दृष्टाश्च तैर्बहवो राजपुत्राः, न पुना रत्नवतीरूपयोग्या इति । तथापि ये मनाक सुन्दरतरास्ते आलिखितास्तैः । गृहीतं च कलाकौशल्यपिशुनकं पत्रच्छेद्यादि । समागता अन्येऽयोध्यापुरीम् । दृष्टस्तैः राधावेधेन धनुर्वेदमभ्यस्यन गुणचन्द्रः । विस्मिताश्चित्तेन । प्रविष्टो नगरी कमारः। चिन्तितं च तैः-अहो तस्य रूपम्, अहो कलाप्रकर्षः । सर्वथाऽनुरूप एष राजदुहित: । किन्तु न शक्यते एतस्य सम्पूर्ण प्रतिच्छन्दकालेखनम्, विशेषतः सकृद्दर्शने । जल्पितं चित्रमतिना-अरे भूषणक ! दृष्टं त्वयाऽऽश्चर्यम् । तेन भणितम्-सुष्ठ दृष्टम्, किन्तु विषण्णोऽहम् । चित्रमतिना भणितम् - अरे केन कार्येण । भूषणेन भणितम्-असमर्थों येन देवीसन्देशं सम्पादयितुम् । चित्रमतिना भणितम् - 'कथमिव' । भूषणेन भणितम्-अरे कथमावाभ्यामेतस्य प्रतिच्छन्दको लिखितुं शक्यते इति । चित्र अत: अपने निपुण आदमियों द्वारा दिखलाती हूँ कि इसके रूप और विज्ञान की अपेक्षा कौन योग्य है। क्योंकि विवाह का समय निकट है-ऐसा सोचकर प्रत्येक दिशा में राजपुत्रों के रूप और ज्ञान को जानने के लिए अपने आदमी भेजे और इन लोगों से कहा-'तुम लोग रत्नवती के रूप के योग्य राजपुत्र के कला-कौशल को सूचित करनेवाले कुछ अत्यन्त अद्भुत चित्र लाओ।' (महारानी जो आज्ञा दें---ऐसा कहकर) प्रत्येक दिशा में राजपुरुष गये। उन्होंने बहुत से राजपुत्रों को देखा किन्तु रत्नवती के रूप के योग्य कोई नहीं था। जो भी (उनमें) अपेक्षाकृत अधिक सुन्दर थे उनको लिख लिया-उनके चित्र बना लिये और उनकी पत्रच्छेद्यादि कलाकौशल सम्बन्धी निपुणता को भी देखा-परखा । कुछ लोग अयोध्यापुरी आये। उन लोगों ने राधावेध से धनुर्वेद का अभ्यास करते हुए गुणचन्द्र को देखा । उनका वित्त विस्मित हुआ। कुमार नगरी में प्रविष्ट हुआ। उन्होंने -इसका रूप और कला का प्रकर्ष आश्चर्यमय है। यह राजपूत्री के सर्वथा योग्य है किन्तु इसके समान चित्र नहीं बना सकते हैं, विशेषतः एक बार दर्शन में (तो यह सम्भव नहीं)। चित्रमति ने कहा--'अरे भूषणक ! तूने आश्चर्य देखा ?' उसने कहा—'भली प्रकार देखा, किन्तु मैं खिन्न हूँ।' चित्रमति ने कहा.---'अरे किस बात से खिन्न हो ?' भूषण ने कहा-'क्योंकि महारानी के सन्देश को पूरा करने में असमर्थ हूँ।' चित्रमति ने कहाकैसे ?' भूषण ने कहा- 'अरे, हम दोनों इसका चित्र कैसे बना सकते हैं ?' चित्रमति ने कहा-'अरे, यह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
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