________________
अट्ठमो भवो]
६७१ भणियं -अरे सव्वसाहारणो एस विसाओ, अन्नेणावि एस न तीरए चेव। भूसणेण भणियं--कि अम्हाण सेसचिताए, निउत्ता एत्थ अम्ह। चित्तमइणा भणियं - अरे उवसप्पम्ह ताव एयं । तओ अणवरयदंसणेण रायधूयपडिच्छंदयं पिव किचिसाहम्मेण लिहिस्सामो एयपडिच्छंदयं ति । भूसणेण भणियं-जुत्तमेयं, ता कहं पुण एस दट्ठव्वो त्ति। चित्तमइणा भणियं-अरे रयणवइरूवमभिलिहिय चित्तयरदारयववएसेण पेच्छामु एयं ति । भूसणेण भणियं-अरे साहु साहु, सोहणो एस उवाओ। एवं च कए समाणे 'रायधूयाए उवरि केरिसो एसो' ति एवं पि विन्नायं भविस्सइ त्ति। मंतिऊण पविट्ठा नयरिं । आलिहिओ अहिमयपडो। घेत्तूण तं गया कुमारभवणं । भणिओ य पडिहारो- भो महापुरिस, चित्तयरदारया अम्हे अत्थिणो कुमारदसणस्स। पडिहारेण भणियं-चिट्ठह ताव तुम्भ, निवेएमि कुमारस्स । निवेइयं पडिहारेण । समाइट्ठ च ण, जहा पविसंतु त्ति । पविट्ठा चित्तमइभूसणा । पणमिओ कुमारो। 'उविसह' त्ति भणियमगेण । 'पसाओ' त्ति भणिऊण उवविट्ठा एए।
उवणोओ य अह पडो हरिसियवयणेहि तेहि सपणाम।
भणिय च देव अम्हे संखउराओ इहं आया ॥६४८॥ मतिना भणितम -अरे सर्वसाधारण एष विषादः, अन्येनाप्येष न शक्यते एव । भूषणेन भणितमकिमावयोः शेषचिन्तया, नियुक्तावत्रावाम्। चित्रमतिना भणितम्-अरे उपसविस्तावदेतम् । ततोऽनवरतदर्शनेन राजदुहितप्रतिच्छन्दकमिव किञ्चित्साधhण लिखिष्याव एतत्प्रतिच्छन्दकमिति । भूषणेन भणितम्-युक्तमेतत् ततः कथं पुनरेष द्रष्टव्य इति । चित्रमतिना भणितम्-अरे रत्नवतीरूप भिलिख्य चित्रकरदारकव्यपदेशेन प्रेक्षावहे एतमिति । भूषणेन भणितम्-अरे साधु साध, शोभन एष उपायः । एवं च कृते सति 'राजदुहितुरुपरि कीदृश एषः' इत्येतदपि विज्ञातं भविष्यतीति। मन्त्रयित्वा प्रविष्टौ नगरीम् । आलिखितोऽभिमतपट: । गृहीत्वा तं गतौ कुमारभवनम् । भणितश्च प्रतीहार:--भो महापुरुष ! चित्रकरदारकावावामथिनी कमारदर्शनस्य । प्रतीहारेण भणितम् - तिष्ठत तावद् युवाम्, निवेदयामि कुमारस्य। निवेदित प्रतीहारेण । समादिष्टं च तेन-यथा प्रविशतमिति । प्रविष्टौ चित्रमतिभूषणौ । प्रणतः कुमारः । ‘उपविशतम्' इति भणितमनेन । 'प्रसादः' इति भणित्वोपविष्टावेतो।
उपनीतश्चाथ पटो हर्षितवदनाभ्यां ताभ्यां सप्रणामम् ।
भणितं च देव ! आवां शङखपुरादिहायातौ ॥ ६४८ ॥ विषाद तो सभी के लिए सामान्य है, दूसरा भी इस कार्य को नहीं कर सकता।' भूषण ने कहा-'हम दोनों को शेष चिन्ता से क्या, हम इस कार्य में लगते हैं।' चित्रमति ने कहा--'अरे, इस कार्य को आगे बढ़ायें। अनन्तर निरन्तर देखकर राजपुत्री के चित्र की कुछ समानता से इसका चित्र बनायें।' भूषण ने कहा- 'यह ठीक है, तो इसे पून: कैसे देखें?' चित्रमति ने कहा-'अरे, रत्नवती का चित्र बनाकर चित्रकार के बहाने इसे देखेगे।' भूषण ने कहा -'अरे ठीक है, ठीक है, यह उपाय ठीक है। इस उपाय से राजपूत्री के प्रति यह (इसका अभिप्राय) कैसा है-यह भी ज्ञात हो जायेगा।' ऐसी सलाह कर दोनों नगरी में प्रविष्ट हए। इष्ट चित्रपट बनाया। उसे लेकर कुमार के भवन में गये। प्रतीहार से कहा-'हे महापुरुष ! चित्रकार के लडके हम दोनों कुमार के दर्शन के इच्छुक हैं।' द्वारपाल ने कहा-'तो ठहरो, आप दोनों के विषय में कुमार से निवेदन करता हूँ।' द्वारपाल ने निवेदन किया । कूमार ने आज्ञा दी कि प्रवेश करने दो। चित्रमति और भूषण प्रविष्ट हए। कुमार को नमस्कार किया। बैठो-इसने कहा। (आपकी) कृपा-कहकर ये दोनों बैठ गये।
उन दोनों ने हर्षितमुख होकर चित्रपट लेकर प्रणामपूर्वक कहा -'महाराज ! हम दोनों शंखपुर से यहाँ आये हैं ॥६४८॥
For Private & Personal Use Only
Jain Education International
www.jainelibrary.org