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अमो भवो]
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ईसि संखुद्धा वि विलिऊण धीरविया वयंसया । अहिय यरं कुविओवाणमंतरो। चितियं च णेणंअहो से दुरायारस्स धीरया, अहो अवज्जा ममोरि। ता दंसेमि से अत्तणो परक्कम, निवाडेमि एवं महल्लं कंचणपायवं । तओ णेण संचुण्णियंगवंगो नीसंसयं चेव न हविस्सइ ति। सयराहमेव पाडिओ कचणपायवो। कुमारपुष्णप्पहावेण निवडिओ अन्नत्थ । न छिक्को वि सपरिवारो कुमारो। दूमिओ वाणमंतरो। चितियं च णेग -अहो से महापावस्स सामत्थं ति। अहिययरं संकिलिट्ठो वित्तेणं। एत्थंतरम्मि कुओइ समागओ गमगरई नाम खेतवालवाणमंतरो। तं च दळूण थेवयाए सत्तस्स अप्पयाए विज्जाबलस्स पलाणो विज्जाहरवाणमंतरो। कुमारो वि उचियसमए पविट्ठो नार।
इओ य उत्तरावहे विसए संखउरे पट्टणे सखायणो नाम राया। कंतिमई से भारिया । धूया य से रयणवई नाम । सा य रूवाइसएण मुणोण वि मणहारिणो कलावियक्खणत्तेण असरिसो अन्नकन्नयाण । तओ विसण्णा से जणणी । न इमीए तिहुयणे वि उचियपुरिसरयणं तक्के मि । अहवा बहुरयगभरिया भयवई मेइणी । ता निरूवावेमि ताव नियनिउगपुरिसेहि, को उण इमीए रूवविन्नावयस्याः । अधिकतरं कुपिता वानमन्तरः । चिन्तितं च तेन-अहो तस्य दुराचारस्य धीरता, अहो अवज्ञा ममोपरि । ततो दर्शयाम्यात्मनः पराक्रमम्, निपातयाम्येतं महान्त काञ्चनपादपम् । ततस्तेन सञ्चणिताङ्गोपाङ्गो निःसंशयमेव न भविष्यतीति । शीघ्रमेव पातितः काञ्चनपादपः । कमारपुण्यप्रभावेण च निपतितोऽन्यत्र । न स्पृष्टोऽपि सपरिवारः कुमारः। दूनो वानमन्तरः। चिन्तितं च तेन-अहो तस्य महापापस्य सामर्थ्य मिति । अधिकतरं संक्लिष्टश्चित्तेन । अत्रान्तरे कतश्चित्समागतो गमनरति म क्षेत्रपालवानमन्तरः । तं च दृष्ट्वा स्तोकतया सत्त्वस्याल्पतया विद्याबलस्य पलायितो विद्याधरवानमन्तरः । कुमारोऽप्युचितसमये प्रविष्टो नगरीम्।
इतश्चोत्तरापथे विषये शङ्खपुरे पत्तने शाङ्खायनो नाम राजा। कान्तिमती तस्य भार्या । दुहिता च तस्या रत्नवती नाम । सा च रूपातिशयेन मुनीनामपि मनोहारिणी कलाविचक्षणत्वेनासदशी अन्यकन्यकानाम् । ततो विषण्णा तस्या जननी। नास्यास्त्रिभुवनेऽप्युचितपुरुषरत्नं तर्कये। अथवा बहुरत्नभृता भगवती मेदिनी। ततो निरूपयामि तावन्निजनिपुणपुरुषैः, कः पुनस्या रूपकिया । कुमार क्षुब्ध नहीं हुआ। जो थोड़े से क्षुब्ध हुए थे ऐसे मित्रों को धैर्य बँधाया। वानमन्तर और अधिक कुपित हुआ। उसने सोचा- इस दुराचारी की धीरता आश्चर्यमय है । ओह ! इसने अवज्ञा की, अत: अपना पराक्रम दिखाता हूं, इस पर बहुत बड़ा स्वर्णवृक्ष गिराता हूँ। उससे जिसके अंगोपांग चूर्णचूर्ण हो गये हैं-ऐसा वह पुन: नहीं होगा अर्थात् मर जायेगा। शीघ्र ही स्वर्णवृक्ष गिराया। कुमार के पुण्य के प्रभाव से वह दूसरी जगह गिरा। कुमार को परिवार सहित उस वृक्ष ने छुआ भी नहीं। वानमन्तर (और) दुःखी हुआ। उसने सोचा-इस महापापी की सामर्थ्य आश्चर्य मय है ! वानमन्तर का चित्त अत्यधिक दुःखी हुआ। इसी बीच कहीं से गमनरति नामक क्षेत्रपाल वानमन्तर आया। उसे देखकर शक्ति की कमी तथा विद्याबल की अल्पता के कारण वानमन्तर विद्याधर भाग गया। कुमार भी उचित समय पर नगरी में प्रविष्ट हुआ।
इधर उत्तरापथ देश के शंखपुर पत्तन में शांखायन नामक राजा था। कान्तिमती उसकी स्त्री थी। उसकी पुत्री का नाम रत्नवती था। वह रूप की अधिकता के कारण मुनियों के मन को हरने वाली थी तथा कला में विचक्षण होने के कारण अन्य कन्याओं से असाधारण थी। अत: उसकी माता द:खी थी। तीनों लोकों में भी इसके योग्य काई पुरुषरत्न नहीं है'-ऐसा अनुमान करती हूँ अथवा पृथ्वी बहुत रत्नों से भरी हुई है।
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