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________________ ६६८ [ समराइन्धकहा ओहसियनंदणवणेसु उज्जाणेसु कलाकलावब्भासतल्लिच्छो आणंदयंतो गरुपयाहिययाइं पूरयंतो पणइमणोरहे संवद्धयंतो भिच्चयणसंघायं अणुहवंतो विसिट्ठपुण्णफलाइं सुहंसुहेण अहिवसइ । इओ य सो विसेणजीवनारओ तओ नरयाओ उवट्टिऊण पुणो संसार माहिडिय अणंतरभवे तहाविहं किंपि अगुट्ठाणं काऊण समुप्पन्नो वेयड्ढपव्वए रहनेउरचक्कवालउरे नयरे विज्जाहरत्ताए ति। कयं से नाम वाणमंतरो ति। अइक्कंतो कोइ कालो। अन्नया समागओ अओज्झातिलयभयं मयणनंदणं नाम उज्जाणं । दिट्ठो य ग तम्मि चेव उज्जाणे आलेक्खविणोयमणुहवंतो कुमारगुणचंदो ति। तं च दळूण उदिण्णपावकम्मो अब्भाससामत्थेणं अकुसलजोयस्स गहिओ परमारईए। चितियं च णेणं-को उण एसो मह दुक्खहेऊ। अहवा किमणेण जाणिएणं; वावाएमि एवं दुरायारं ति । कसायकलुसियमई गओ तस्स समीवं । जाव न चएति तस्सोग्गहं अइक्कमिउं, तओ चितियमणेणं - इहटिओ चेव अदिस्समाणो विज्जासत्तीए भेसेमि भोसणसद्देणं । तओ सयमेव जीवियं परिच्चइस्सइ । कओ णेण वज्जप्पहारफुट्टतगिरिसद्दभीसणो महाभरवसद्दो। न संखुद्धो कुमारो। द्यानेषु कलाकलाप.भ्यासतत्पर आनन्दयन् गुरुप्रजाहृदयानि पूरयन् प्रणयिमनोरथान संवर्धयन् भृत्यजनसङ्घातमनुभवन् विशिष्टपुण्यफलानि सुखसुखेनाधिवसति । ____ इतश्च स विषणजीवनारकस्ततो नरकादुवृत्य पुनः संसारमाहिण्डयानन्त रभवे तथाविधं किमप्यनुष्ठानं कृत्वा समुत्पन्नो वैताढयपर्वते रथनूपुरचक्रवालपुरे नगरे विद्याधरतयेति । कृतं तस्य नाम वानमन्तर इति । अतिक्रान्तः कोऽपि कालः । अन्यदा समागतोऽयोध्या तिलक भूतं मदननन्दनं नामोद्यानम् । दृष्टश्च तेन तस्मिन्नेवोद्याने आलेख्यविनोदमनुभवन कमारगुणचन्द्र इति। तं च दृष्ट्वोदोर्णपापकर्माऽभ्याससामर्थ्येनाकुशलयोगस्य गृहीतः परमारत्या। चिन्तितं च तेन-कः पुनरेष मम दुःखहेतुः । अथवा किमनेन ज्ञातेन, व्यापादयाम्येतं दुराचारमिति । कषायकलुषितमतिर्गतस्तस्य समीपम, यावन्न शक्नोति तस्यावग्रहमतिक्रमितुम् । ततश्चिन्तितमनेन- इहस्थित एवादृश्यमानो विद्याशक्त्या भीषये (भाषये) भीषणशब्देन । ततः स्वयमेव जीवितं परित्यक्ष्यति । कृतस्तेन वज्रप्रहारस्फुटगिरिशब्द भीषणो महाभैरव शब्दः। न संक्षुब्धः कुमारः। ईषत् संक्षुब्धा अपि धीरिता विमुख होकर उसी नगरी में, नन्दनवन पर हंसनेवाले उद्यानों में कलाओं के समूह के अभ्यास में तत्पर रहकर, माता-पिता और प्रजाओं के हृदयों को आनन्दित करता हुआ, याचकों के मनोरथ को पूर्ण करता हुआ, सेवक-समूह की वृद्धि करता हुआ, विशिष्ट पुण्यों के फल का अनुभव करता हुआ अत्यधिक सुख से रह रहा था। ____ इधर वह विषेण का जीव नारकी उस नरक से निकलकर पुन: संसार में भ्रमण कर उसी प्रकार के किसी अनुष्ठान को कर, वैताढ्यपर्वत के रथनूपुर चक्रवालपुर नगर में विद्याधर के रूप में उत्पन्न हुआ। उसका नाम वानमन्तर रखा गया। कुछ समय बीत गया । एक बार वह अयोध्या के तिलकभूत मदननन्दन नामक उद्यान में आया। उसने उस उद्यान में चित्रकला के विनोद का अनुभव करते हुए कुमार गुणचन्द्र को देखा। उसे देखकर, जिसके पापकर्म का उदय हुआ है और अभ्यास की सामर्थ्य से जिसका अशुभयोग आया है-ऐसे, उस (वानमन्तर) को उत्कृष्ट अरति ने जकड़ लिया। उसने सोचा-मेरे दुःख का कारण यह कौन है ? अथवा इसकी जानकारी से क्या, इस दुराचारी को मार डालता हूँ । कषाय से कलुषित होते हुए उसके समीप गया, उसके आश्रय को लाँघने में समर्थ नहीं हुआ। अनन्तर उसने सोचा-यहीं रुककर अदृश्य रहकर विद्या की शक्ति से भीषण शब्द से डराऊँगा, तब अपने आप ही प्राण त्याग देगा। उसने वज्र के प्रहार से पहाड़ के टने के समान भयानक शब्द Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
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