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________________ सत्तमो भवो ] ६०३ त्ति विसण्णा हियएणं । चितियं च णाए। अलं मे अज्जउत्तविरहियाए जीविएणं । ता एयम्मि असोअपायवे उक्कलंबेमि अत्ताणयं । निबद्धो वल्लीए पासओ। निमिया सिरोहरा। भणियं च णाएभयवईओ वणदेवयाओ, न मए अज्जउत्तं सोत्तूण अन्नो मणसा वि चितिओ। इमिणा सच्चेण जम्मरम्मि वि अज्जउत्तो चेव भत्ता होज्ज त्ति कयं नियाणं । पवाहिओ अप्पा, तुट्टो से पासओ, निवडिया धरणिठे, गया मुच्छं। दिवा आसन्नतवोवणवासिणा संझोवासणनिमित्तमागएणं मणिकुमारएणं । चितियं च णेणं-हा का उण एसा वणदेवया विव इत्थिया निवाडया धरणिवठे। अहवा कि मम इत्थियाए । अन्नओ गच्छामि। वारियं खु समए इत्थियादसणं । भणियं च तत्थ--अवि य अंजियव्वाइं तत्तलोहसलायाए अच्छीणि, न दट्टव्वा य अंगपच्चंगसंठाणेणं इत्थिया; अवि य भक्खियध्वं विसं, न सेवियत्वा विसया; छिदियव्वा जीहा न जंपियत्वमलियं ति। ता कि मम इमीए, अणहियारो ये एसो मणिजणस्स । अहवा दीणजणअब्भुद्वरणं पि समसत्तुमित्तयाए पडिवाइयमेव । भणियं च तत्थअत्ताणनिदिवसेसं दट्टव्वा सव्वपाणिणो, पवत्तियव्वं हिए जहासत्तीए, अब्भुद्धरेयव्वा दोणया, न खलु इति विषण्णा हृदयेन । चिन्तितं च तया । अलं मे आर्यपुत्रविरहिताया जीवितेन । तत एतस्मिन्नशोकपादपे उल्लम्बे आत्मानमिति । निबद्धो वल्ल्या पाशः । न्यस्ता शिरोधरा । भणितं च तयाभगवत्यो वनदेवता: ! न मयाऽऽर्यपुत्रं मुक्त्वाऽन्यो मनसाऽपि चिन्तितः । अनेन सत्येन जन्मान्तरेऽप्यार्यपत्र एव भर्ता भवेदिति कृतं निदानम्। प्रवाहित (मुक्त:) आत्मा, त्रुटितस्तस्याः पाशः, निपतिता धरणीपृष्ठे, गता मूर्छाम् । दृष्टाऽऽसन्नतपोवनवासिना सन्ध्योपासननिमित्तमागतेन मनिकमारकेन । चिन्तितं च तेन-हा का पुनरेषा वनदेवतेव स्त्री निपतिता धरणीपृष्ठे । अथवा कि मम स्त्रिया। अन्यतो गच्छामि । वारितं खलु समये स्त्रीदर्शनम् । भणितं च तत्र-अपि चाजितव्यानि तप्तलोहशलाकयाऽक्षीणि, न द्रष्टव्या च अङ्गप्रत्यङ्गसंस्थानेन स्त्री, अपि च भक्षितव्यं विषम, न सेवितव्या विषयाः, छेत्तव्या जिह्वा, न जल्पितव्यमलीकमिति । ततः किं ममानया, अनधिकारश्चैष मनिजनस्य । अथवा दीनजनाभ्युद्धरण पपि समशत्रुमित्रतया प्रतिपादितमेव । भणितं च तत्र-आत्मनिर्विशेषं द्रष्टव्याः सर्वप्राणिनः, प्रवर्तितव्यं हिते यथाशक्ति, अभ्युद्धर्तव्या दीनाः, न खल्वहिंसातो आर्यपुत्र दिखाई नहीं दिये, अतः हृदय से दुःखी हुई। उसने सोचा-आयेपुत्र के बिना मेरा जीना व्यर्थ है । अतः इस अशोकवृक्ष पर अपने को लटकाती हूँ। लताओं से पाश बाँधे । गर्दनी रखी। उसने कहा-'भगवती वनदेविओ ! मैंने आर्यपुत्र को छोड़कर अन्य का मन से भी चिन्तन नहीं किया है। इस सत्य से अन्य जन्म में भी आर्यपुत्र ही पति हों' इस प्रकार निदान किया। अपने आपको छोड़ दिया, उसका पाश टूट गया, (वह) धरती पर गिर गयी, मूच्छित हो गयी। समीप के तपोवन में रहनेवाले मुनिकुमार को, जो कि सन्ध्योपासना के लिए आया था, वह दिखाई दी। उसने सोचा-हाय ! यह कौन वनदेवी के समान स्त्री धरती पर पड़ी है ! अथवा मूझे स्त्री से क्या? दूसरी ओर जाता हूँ। शास्त्रों में स्त्री का देखना निषिद्ध है। कहा गया है-तपाये हुए लोहे की सलाई से आंखों को आंज ले, किन्तु अङ्ग-प्रत्यङ्ग के आकार से स्त्री को न देखे। और भी-विष को खा लेना चाहिए किन्तु विषय का सेवन नहीं करना चाहिए, जीभ काट लेनी चाहिए, किन्तु झूठ नहीं बोलना चाहिए। अतः इससे क्या, यह मुनिजन का अधिकार नहीं है। अथवा शत्रु और मित्रों पर समान दृष्टि होने के कारण दीनजनों का उद्धार करना भी प्रतिपादित ही है। उसमें कहा गया है--अपने समान सभी प्राणियों को देखना चाहिए, हित में यथाशक्ति प्रवृत्त होना चाहिए, दीनों का उद्धार करना चाहिए, अहिंसा के अतिरिक्त अन्य कोई धर्म का साधन नहीं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
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