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[समराइच्चकहा
संपयं तब्भे पमाणं ति। तओ 'हा देवि' ति भणमाणो मच्छिओ कुमारसेणो । समासासिओ पल्लिणाहेणं । भणियं च णणं-देव, अलं विसाएणं । कत्तियमियमरणं', थेवा य वेला सत्थविब्भमस्स, अणचियधरणिपरिसक्कवणा य देवो, परगवेगगमणा य मुणियसयलरणभावा य सबरपुरिसा। ता कहि गमिस्सइ त्ति । गवेसिऊण संजोएमि देवं रायधूयाए। विसज्जिया णेण दिसो दिसि निययपूरिसा। भणिओ य साणुदेवो-अज्ज, अइक्कंतो ताय कालो पल्लीदंसणस्स । ता समासासेउ देवं अज्जो। अहं पुण देवि चेव अन्नेसामि त्ति । पडिस्सुयं साणुदेवेण । तओ कुमारसमोवम्मि निरूविऊण कइवयनिययपूरिसे पयट्रो पल्लिणाहो । भणियं च णेणं-देव, परिच्चय विसायं, अवलंबेहि उच्छाहं, गवेसामो देवि ति। पडिस्सुयं कुमारेणं । पयट्टो सबरपुरिससमेओ गवेसिउं ।
इओ य रायध्या 'कहिं अज्जउत्त' त्ति गवेसमाणी निवडिया कंतारमझे। मढाओ दिसाओ। अपेच्छमाणी दइययं भमिया महाडवीए । परिणयप्पाए वासरे समागया गिरिनइं। न दिट्ठो अज्जउत्तो
मन्वेषमाणेनापि न दृष्टा राजदुहिता मया। साम्प्रतं यूयं प्रमाण मिति । ततो 'हा देवि !' इति भणन् मूच्छितः कुमारसेनः । समाश्वासित: पल्लीनाथेन । भगितं च तेन-देव ! अल विषादन । कियदिद परण्यम्, स्तोका च वेला सार्थविभ्र मस्य, अनुचितधरणीपरिष्वष्कणा (-परिचंक्रमणा) च देवी, पवनवेगगमनाश्च ज्ञातसकलारण्यभावाश्च शबरपुरुषाः । ततः कुत्र गमिष्यतीति । गवेषयित्वा संयोजयामि देवं राजदुहित्रा । विसर्जितास्तेन दिशि दिशि निजपुरुषमः । भणितश्च सानुदेवः-आर्य ! अतिक्रान्तस्तावत्काल: पल्लीदर्शनस्य । ततः समाश्वासयतु देवमार्यः । अहं पुनर्देवीमेवान्वेष्ये इति । प्रतिश्रुतं सानुदेवेन । ततः कुमारसमीपे निरूप्य नियोज्य) कतिपय निजपुरुषान् प्रवृत्तः पल्लीनाथः । भणितं च तेन-देव ! परित्यज विषादम्, अवलम्ब स्वोत्साहम्, गवेषयामो देवीमिति । प्रतिश्रतं कुमारेण । प्रवृत्तः शबरपुरुषसमेतो गवेषयितुम् ।
इतश्च सा राजदुहिता 'कुत्र आर्यपुत्रः' इति गवेषयन्ती निपतिता कान्तारमध्ये। मूढा दिशः । अप्रेक्षमाणा दयितं भ्रान्ता महाटव्याम् । परिणतप्राये वासरे समागमा गिरिनदीम् । न दृष्ट आर्यपुत्र
दी, इस समय आप प्रमाण हैं। अनन्तर हा देवी'--ऐसा कहता हुआ कुमार मूच्छित हो गया। भिल्लराज ने आश्वस्त किया। उसने कहा---'महाराज ! विषाद मत कीजिए । यह जंगल कितना-सा है, सार्थ के घूमने का समय थोड़ा है और देवी पृथ्वी पर चलने में असमर्थ है, समस्त वन से परिचित शवरपुरुष वायु के वेग के समान गमन करने वाले हैं। अत: कहाँ जाएगी ? ढूंढकर महाराज को राजपुत्री से मिलाये देता हूँ।' उसने प्रत्येक दिशा में आदमी भेजे । सानुदेव से कहा --'आर्य ! भीलों की बस्ती देखने का काल बीत गया है, अतः आर्य महाराज को सान्त्वना दें। मैं देवी की खोज करता हूँ।' सानुदेव ने स्वीकार किया। अनन्तर कुमार के पास कुछ निजी पुरुषों को नियुक्त कर भिल्ल राज चल पड़ा। (जाते हुए) उसने कहा -'महाराज ! विषाद छोड़िए, उत्साह का अवलम्बन कीजिए, (हम लोग) देवी को खोजते हैं ।' कुमार ने स्वीकार किया। (भिल्ल !ज) शवरों के साथ ढूँढ़ने लग गया।
इधर वह राजपुत्री 'आर्यपुत्र कहाँ हैं ?'---इस प्रकार ढूंढ़ती हुई वन के बीच गिर गयी। दिशाएँ मूढ़ हो गयीं। पति को न देखती हुई विशाल वन में भटक गयी। दिन ढलने पर पर्वतीय नदी के पार आयी।
१, केत्तिय-ख।
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