________________
मतमो भवो]
अन्जो ति। कुमारेण भणियं-सत्थवाहपुत्तो पमाणं। साणुदेवेण भणियं---भद्द, दिळे तुमम्मि दिट्टा चेव पल्लि त्ति।
एत्थंतरम्मि बाहुप्फुल्ललोयणो समागओ साणुदेवसूवयारो। भणियं च ण-अज्ज, परित्तायाहि परित्तायाहि । पण8 सव्वसारं, न दोसए रायधूय त्ति। तओ आउलीहूओ कुम रो। विसण्णो साणुदेवो। किमेयं' ति मूढो पल्लोवई । भणियं च णेण-- अज्ज, का एसा रायधय त्ति। सागुदेवेण भणियंभद्द, रायउरसामिणो संखरायस्स धूया, कुमारं उद्दिसिऊण देवस्स घरिणी संतिम इति । तेण भणियंकहं न दीसह ति। सूत्रधारेण भणियं-सुण । पवत्ते आओहणे सबरसेणासम्मुहम्मि गए रायउत्त अन्न. दिसाए य भेल्लिए सत्थे विलुप्पमाणे सारभंडे पाडिएहि आडियत्तिएहि 'हा, अज्जउत्त हा अज्जउत्त' त्ति भणमाणी निग्गया चेलहराओ, पहाविया अडवित्तं । 'न मोत्तव्वा एस त्ति सत्थवाहपुत्तस्स क्यणमणुसरंतो लग्गो अहं तीए मगाओ। गओ थेवं भूमिभागं । आहओ लउडेण सबरजवाणेण । नियडिओ धरणिवठे। समागया मुच्छा । अइक्कंता काइ वेला। पडिलद्धा चेयणा । उद्विओ संभमेणं । पवतो गवेसिउं। तओ गुविलयाए रणस्स मूढयाए दिसाविभायाणं अन्नेसमाणेणावि न दिट्ठा रायधूया मए । कुमारेण भणितम्-सार्थवाहपुत्रः प्रमाणम् । सानुदेवेन भणितम् --दृष्टे त्वयि दृष्टव पल्लीति ।
___ अत्रान्तरे बाष्पोत्फुल्ललोचनः समागतः सानुदेवसूपकारः। भणितं च तेन -आर्य ! परित्रायस्व परित्रायस्व प्रनष्टं सर्वप्रारम्, न दृश्यते राजदुहितेति । तत आकुलीभूतः कुमार: विषण्ण: सानुदेवः किमेतद्' इति मूढः पल्लीपतिः । भणितं च तेन --आर्य ! का एषा राजदुहितेति । सानुदेवेन भणितम् -'भद्र ! राजपुरस्वामिनः शङ ख राजस्य दुहिता, (कुमार मुद्दिश्य) देवस्य गृहिणी शान्तिमतीति । तेन भणितम्-कथं न दृश्यते इति । सूपकाण भणितम्-शृणु । प्रवृत्ते आयोधने शबरसेनासम्मुखे गते राजपत्रे अन्यादशि च भेदिते सार्थे विलुप्यमाने सारभाण्डे पातितेषु सुभटेषु 'हाआर्यपुत्र ! हा आर्यपुत्र !' इति भणन्ती निर्गता चेलगृहात् । प्रधाविता अटवीसम्मुखम्। 'न मोक्तव्या एषा' इति सार्थवाहपुत्रस्य वचन पनुस्मरन् लग्नोऽहं त्स्या पृष्ठतः । गतः स्तोकं भूमिभागम् । आहतो लकुटेन शबरयूना। निपतितो धरणीपृष्ठे । समागता मर्जी। अतिक्रान्ता काचिद् वेला । प्रतिलब्धा चेतना । उत्थितः सम्भ्रमेण । प्रवृत्तो गवेषयितुम् । ततो गहनतयाऽरण्यस्य मूढतया दिग्विभागानाकुमार ने कहा---'सार्थवाहपुत्र प्रमाण हैं ।' सानुदेव ने कहा- 'तुम्हारे देखने पर बस्ती देख ही ली।'
__ इसी बीच आँसुओं से गीले नेत्रों वाला सानुदेव का सोइया आया और उसने कहा-'आर्य ! बचाओ, बचाओ, सब धन नष्ट हो गया ! राजपुत्रीन ही दिखाई दे रही है।' अनन्तर कुमार आकुलित हुआ, सानुदेव खिन्न हुआ। 'यह क्या !' -इस प्रकार भिल्लराज मूढ़ हुआ। उसने कहा- 'आर्य ! यह राजपुत्री कौन है ?' सानुदेव ने कहा--'भद्र ! राजपुर के स्वामी शंखराज की पुत्री (कुमार की ओर इशारा कर) महाराज की गृहिणी शान्तिमती। उसने कहा-'दिखाई क्यों नहीं देती है ?' रसोइए ने कहा--'सुनो। युद्ध प्रारम्भ होने पर जब राजपुत्र शबरसेना के सम्मुख चला गया और टोली अन्य दिशाओं में छिन्न भिन्न हो गयी, कीमती माल लुट गया। तबसुभटों के टूट पड़ने पर 'हाय आर्यपुत्र ! हाय आर्यपुत्र ! ऐसा कहती हुई रावटी से निकल गयी। वन की ओर दौड़ी। 'इसे नहीं छोड़ना चाहिए- इस प्रकार वणिकपुत्र के वचनों का स्मरण कर मैं उसके पीछे लग गया। थोड़ी दूर तक गया। शबरयुवक ने डण्डे से प्रहार किया, पृथ्वी पर गिर गया। मूर्छा आ गयी। कुछ समय बीत गया। चेतना प्राप्त हुई। घबराहट से उठ गया। ढूंढ़ने लगा। अनन्तर जंगल की गहनता, दिशाओं के विभागों की मूढ़ता के कारण ढूंढ़ने पर भी वह राजपुत्री मुझे नहीं दिखाई
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org