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[समराहच्चकहा
सस्थवाहपुत्तो, उवलद्धो वणनिउंजे, आणीओ य हिं। भणिओ पल्लिवइणा-अज्ज, न विन्नायं अम्हेहि, जहा एसो महापुरिसो इह गच्छह त्ति । विणिज्जिया य णेण अम्हे । महाणभावयाए पडिवन्नो य एस अम्हेहि सामी। अओ संबंधिओ तुमं ति। अदोहया' णे तुज्झ रित्थस्स। ता निरूवावेहि एयं, कि एत्थ नत्थि त्ति । तओ 'अहो महाणभावया कुमारस्स, एयाइणा विणिज्जिया सबरसेणा। भिच्चभावमवगओ पल्लीव; अहवा थेवमियमिमस्स कि करेंति हरिणया केसरिकिसोरयस्स' त्ति चितिऊण जंपियंसाणदेवेण - भह, सामिसालम्मि अज्जउत्ते तुम्मि य संबंधिए कि ममं नत्थि त्ति । तेण भणियं -तहावि निरूवावसु त्ति, न मे अन्नहा चित्तनिव्वुई होइ । तओ निरूवावियमणेणं, जाव 'पुज्जइ'त्ति साहियं पल्लिणाहस्स । परितुट्ठो य एसो। चितियं कुमारेणं । अहो महाणुभावया एयस्स । एहमेत्तेणावि एवं चिट्टइत्ति--अहवा सुगेज्झाणि सज्जणहिययाणि। भंजाविओ से पहारो, विइण्णं कडिसुत्तयं । महापसाओ ति भणिऊण गहियं पहिलवइणा। निरूवाविया पडिहयपुरिसा । कयाई वणपरिकम्माइं । भणियं च णेण-अज्ज, पच्चासन्ना चेव एत्थ अम्हाण पल्ली; ता तीए दंसणेण अणुग्गहेउ में उपलब्धो वननिकुञ्ज, आनीतश्च तैः । भणित: पल्लीपतिना। आर्य ! न विज्ञातमस्माभिः, यथैष महापुरुष इह गच्छतीति। विनिजिताश्च तेन वयम् । महानुभावतया प्रतिपन्नश्चैषोऽस्माभिः स्वामी। अतः सम्बन्धी त्वमिति । अद्रोहका वयं तव रिक्थस्य । ततो निरूपयैतत् किमत्र नास्तीति । ततः 'अहो महानुभावता कुमारस्य, एकाकिना विनिजिता शबरसेना, भृत्यभावमुपगतः पल्लीपतिः, अथवा स्तोकमिदमस्य, किं कुर्वन्ति हरिणकाः केसरिकिशोरकस्य' इति चिन्तयित्वा जल्पितं सानुदेवेन–भद्र ! स्वामिनि आर्यपुत्रे त्वयि च सम्बन्धिनि किं मम नास्तीति । तेन भणितम्-तथापि निरूपयेति, न मेऽन्यथा चित्तनिर्वृत्तिर्भवति । ततो निरूपितमनेन, यावत् 'पूर्यते' इति कथितं पल्लीनाथस्य । परितुष्टश्चैषः । चिन्तितं कुमारेण-अहो महानुभावतैतस्य । एतावन्मात्रेणापि एवं तिष्ठतीति । अथवा सुग्राह्याणि सज्जनहृदयानि । भजितस्तस्य प्रहारः, वितीर्णे कटिसूत्रम् । 'महाप्रसादः' इति भणित्वा गृहीतं पल्लिपतिना। निरूपिता: प्रतिहतपुरुषाः । कृतानि व्रणपरिकर्माणि । भणितं च तेन -आर्य ! प्रत्यासन्नैवात्रास्माकं पल्ली, ततस्तस्या दर्शनेनानुगृह्णातु मामार्य इति । (वह) वननिकज में प्राप्त हुआ, वे लोग (उसे) ले आये। भिल्लराज ने कहा-'आर्य ! हम लोगों ने नहीं जाना कि यह महापुरुष जा रहा है। उसने हम लोगों को जीत लिया। महानुभावता के कारण यह हम लोगों का स्वामी हो गया, अत: तुम सम्बन्धी हो। हम लोग तुम्हारी सम्पत्ति के द्रोही नहीं हैं। अतः इसे देख लो, यहाँ क्या नहीं है ? (इसमें क्या नहीं है ?) ।' अनन्तर, ओह कुमार की महानुभावता, अकेले ही शबरसेना को जीत लिया, भिल्लराज सेवक बन गया । अथवा इसके लिए यह बहुत थोड़ा है, सिंह के बच्चे का हरिण क्या कर पाते हैं ? ऐसा सोचकर सानुदेवं ने कहा----'भद्र ! आर्यपुत्र के स्वामी होने और तुम्हारे सम्बन्धी होने पर मेरा क्या नहीं है ?' भिल्लराज ने कहा--'तो भी देख लो (अन्यथा मेरे मन को शान्ति नहीं होगी)।' अनन्तर सानुदेव ने देखा, 'पूरी है'-ऐसा भिल्लनाथ से कहा । भिल्ल राज सन्तुष्ट हुआ। कुमार ने सोचा-ओह इसकी महानुभावता । इतने मात्र से ही यह इस प्रकार बैठा है अथवा सज्जनों के हृदय सुग्राह्य हैं । उसके प्रहार को विफल किया, कटिसूत्र दिया। बहुत बड़ी कृपा-ऐसा कहकर भिल्लराज ने ले लिया। घायल पुरुषों को देखा। उनके घाव पर मरहमपट्टी वगैरह की। भिल्लराज ने कहा- 'आर्य ! समीप में ही हमारी बस्ती है, अत: दर्शन कर मुझे अनुगृहीत करें।'
१. अदोहणया-क । २. •मुव णीयो-क।
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