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________________ सत्तमो भवो] एत्यंतरम्मि भणियं कमारेणं-भद्द, वीसत्थो होहि । तेण भणियं - अज्ज, कोइसी अम्हारिसाणं वीसत्थया। एत्यंतरमि कहियमेगेण सबरेण सेणाए, जहा पल्लीवई पाडिओ ति। अमरिसावेसेण 'हण हण' त्ति जंपमाणा धाविया सबरपुरिसा। 'विणिज्जिओ अहं, महापुरिसो य एसो, ता न पहरियव्वं तु हि' ति सन्नासंपायणत्थं चेट्टियं पहिलणाहेणं। कयमणेण गोमाजवासियं। तओ तमवगच्छिऊण विमुक्कचावपरसू सिरकयंजलिउडा समागया सबरपुरिसा। भणियं च हिं--अज्ज, अभयं देहि त्ति । कुमारेण भणियं-अभयं मुक्काउहाणं । एत्थंतरम्मि चलणेसु निवडिओ पल्लीवई । भणियं च जेण-अज्ज, खमियन्वो एस अवराहो । कुमारेण भणियं-भद्द, को एत्थ अवराहो । तेण भणियंजं सत्थो लडिओ ति । कुमारेण चितियं । हंत किमयं ति । एत्थंतरम्मि जंपियं पल्लिणाहेणं- अरे करेह आघोसणं, निवारेह आओहणं । आणेह जं जेण गहियं; पुणोवलद्धे य न खमेमि अहयं ति। आएससमणंतरं च संपाडियमणेहिं । भणियं च पहिलवइणा-अज्ज, निरूवेहि एयं, कि एत्थ नत्थि त्ति । कुमारेण भणियं--भद्द, असामिओ अहं एयस्स; ता निरूविऊण सत्यवाहपुत्तं पुच्छसु त्ति । निरूवाविओ कमारेण-भद्र ! विश्वस्तो भव । तेन भणितम्-आर्य ! कीदृशी अस्मादृशानां विश्वस्तता। अत्रान्तरे कथित मेकेन शबरेण सेनायाः, यथा पल्लीपतिः पातित इति । अमर्षावेशेण 'जहि जहि' इति जल्पन्तो धाविता: शबरपुरुषाः । 'विनिर्जितोऽहम्, महापुरुषश्चैषः, न प्रहर्तव्यं युष्माभिः' इति संज्ञासम्पादनार्थे चेष्टितं पल्लीनाथेन ! कृतमनेन गोमायुवाशितम् । ततस्तमवगत्य विमुक्तचापपरशवः शिरःकृतालिपुटाः समागताः शबरपुरुषाः। भणितं च तै:-आर्य ! अभयं देहीति । कुमारेण भणितम्-अभयं मुक्तायुधानाम् । अत्रान्तरे चरणयोर्निपतितः पल्लीपतिः । भणितं च तेन --आर्य ! क्षमितव्य एषोऽपराधः । कुमारेण भणितम् --भद्र ! कोऽत्रापराधः। तेन भणितम्-यत्सार्थो लुण्ठित इति । कुमारेण चिन्तितम् । हन्त किमेतदिति । अत्रान्तरे जल्पितं पल्लीनाथेन-अरे कुरुताघोषणाम्, निवारयतायोधनम्। आनयत यद् येन गृहीतम्, पुनरुपलब्धे च न क्षाम्याम्यहमिति । आदेशसमनन्तरं च सम्पादितमेभिः । भणितं च पल्लीपतिना-निरूपयैतत्, किमत्र नास्तीति । कुमारेण भणितम्-भद्र ! अस्वाम्यहमेतस्य ततो निरूप्य सार्थवाहपुत्रं पृच्छेति । निरूपितः सार्थवाहपुत्रः, आकृति से लगता है कि यह परमेश्वर है। अतः (हमारा कार्य ठीक नहीं है), हम लोगों ने यह ठीक नहीं किया है। इसी बीच कूमार ने कहा-'भद्र! विश्वस्त होओ। उसने कहा-'आर्य ! हम जैसे लोगों की विश्वस्तता कैसी?' इसी बीच किसी ने शबरसेना से कह दिया कि स्वामी गिरा दिया गया। क्रोध से आविष्ट होकर 'मारोमारो'-ऐसा कहते हुए शबरपुरुष दौड़ पड़े। 'मैं जीत लिया गया और यह महापुरुष हैं, इन पर प्रहार मत करो', इस प्रकार का इशारा करने के लिए भिल्लराज ने चेष्टा की। इसने सियार की आवाज की। अनन्तर उसे जानकर धनुष और परशुओं को छोड़कर अंजलि को सिर पर बाँधे हुए शवरपुरुष आये और उन्होंने कहा'आर्य ! अभय दो।' कुमार ने कहा-'आयुधों को छोड़नेवालों को अभय है।' इसी बीच भिल्ल राज चरणों में गिर गया । उसने कहा- 'आर्य ! यह अपराध क्षमा करें।' कुमार ने कहा-'भद्र ! कैसा अपराध !' उसने कहा-'जो कि सार्थ को लूटा।' कुमार ने सोचा - हाय ! यह क्या ? इसी बीच भिल्लराज ने कहा- 'अरे ! घोषणा करो, योद्धाओं को रोको। जिसने जो ग्रहण किया हो, उसे लाओ। बाद में मिलने पर मैं क्षमा नहीं करूंगा।' आदेश के बाद इन्होंने (भीलों ने) उसे पूरा किया। भिल्लराज ने कहा -- इसे देखो, यहाँ क्या नहीं है ?' कुमार ने कहा-'भद्र ! मैं इनका स्वामी नहीं हूँ, अतः देखकर सार्थवाहपुत्र से पूछो। सार्थवाहपुत्र को देखा गया, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
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