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________________ ५६८ [ समराइच्चकहा विमुक्कबाणवरिसा निवडिया सबरधाडी। वाइयाई सिंगाई, हण हण ति उद्धाइओ कलयलो, विसण्णा कम्मारया, वण्णो इत्थियायणो। पइट्ठिया आडियत्तिया, पवत्तमाओहणं --'सुंदरि, धीरा होहि' त्ति परिसंठवेऊण संतिमइं धाविओ कुमारसेणो, कड्ढियं मंडलग्गं । तओ केसरिकिसोरएण विय हरिणजूहं भग्गं सबरसेन्नं । अन्नदिसाए य भेल्लिओ सत्थो, विलुत्तं सारभंडं, पाडिया आडियत्तिया नट्ठो इत्थियायणो। 'कहं इओ विणिज्जिओ त्ति वलिओ कुमारसेणो । पलाणा सबरपुरिसा। तओ एगागी अवेक्खिऊण कुमारसेणं उवट्टिओ' पल्लीवई, मिलिओ य तस्स । छूढं च णोहरणं । वंचियं कुमारेणं, परिछूढं च तस्स। पाडिओ पल्लीवई, मच्छिओ य एसो। वीजियो कुमारेणं, जाव न चेयइ ति। तओ आसन्नवत्तिसराओ घेत्तण नलिपिपत्तण दिन्नं से सलिलं । तओ चेइयमणेणं' । दिट्ठो कुमारो। चितियं च णेणं । को पुण एसो महापुरिसो, सुकुमारदेहो वि दढप्पहारी, असहाओ वि ववसायजुत्तो, केसरी विय परक्कमेणं, मणिकुमारो विय दयाए, कुसुमाउहो ।वय रूवेण, सत्तूण वि असत्तू । ता आगिईओ चेवावगच्छामि, जहा परमेसरो खु एसो। ता न जुत्तमम्हेहि ववसियं ति । विमुक्तबाणवर्षा निपतिता शबरघाटी। वादितानि शृङ्गाणि, 'जहि जहि' इत्युद्धावितः कलकलः, विषण्णाः कर्मकारकाः, भीतः स्त्रीजनः । प्रतिष्ठिताः सुभटाः । प्रवृत्तमायोधनम् । 'सुन्दरि ! धीरा भव' इति परिसंस्थाप्य शान्तिमती धावितः कमारसेनः, कृष्टं मण्डलाग्रम् । ततः केसरिकिशोरकेनेव हरिणयूथं भग्नं शबरसैन्यम् । अन्य दिशि च भेदितः सार्थः, विलुप्तं सारभाण्डम्, पातिता:सुभटाः, नष्ट: स्त्रीजनः । 'कथमितो विनिर्जितः' इति वलित: कुमारसेनः । पलायिताः शबरपुरुषाः । तत एकाकी अवेक्ष्य कुमारसेनमुपस्थितः पल्लीपतिः मिलितश्च तस्य । क्षिप्तं च तेन शस्त्रम् । वञ्चितं कुमारेण, प्रतिक्षिप्तं च तस्य । पातित: पल्लीपतिः, मूच्छितश्चैषः । वीजितः कुमारेण, यावन्न चेतयते इति । तत आसन्नवतिसरसा गृहीत्वा नलिनीपत्रेण दत्तं तस्य सलिलम् । ततश्चेतितमनेन । दृष्ट: कुमारः । चिन्तितं च तेन । कः पुनरेष महापुरुषः, सुकुमारदेहोऽपि दृढप्रहारी, असहायोऽपि व्यवसाययुक्तः, केसरीव पराक्रमेण, मुनिकुमार इव दयया, कुसुमायुध इव रूपेण, शत्रूणामप्यशत्रुः । तत आकृत्या एवावगच्छामि, यथा परमेश्वर: खल्वेषः । ततो न युक्तमस्माभिर्व्यवसितमिति । अत्रान्तरे भणितं अनायास ही बाणों की वर्षा छोड़ती हुई भीलों की सेना ट पड़ी। सिंगा बजाये गये । 'मारो-मारो'--ऐसा कोलाहल उठा, मजदूर दुःखी हुए, स्त्रियाँ भयभीत हो गयीं। योद्धा अवस्थित हो गये । युद्ध होने लगा। 'सुन्दरि ! धीर धरो'----इस प्रकार शान्तिमती को ठहराकर कुमार सेन दौडा, तलवार खींची। अनन्तर जिस प्रकार सिंह का बच्चा हरिणों के झण्ड को पराजित कर देता है, उसी प्रकार शबर सेना को (कूमार सेन ने) पराजित कर दिया। अन्य दिशाओं में टोली टूट गयी, कीमती माल लुप्त हो गया, सुभट गिर गये, स्त्रियाँ नष्ट हो गयीं । 'यहाँ से कैसे जीतकर जाओगे'--ऐसा कहकर कुमार सेन मुडा। शबरपुरुष भागे। अनन्तर कुमार सेन को अकेला देख भीलों का स्वामी आया, उससे मिला। उसने शस्त्र छोड़ा, कुमार ने चकमा दे दिया और उत्तरस्वरूप उसके ऊपर फेंका। भीलों का स्वामी गिरा दिया गया। वह मूच्छित हो गया। कुमार ने हवा की। (उसे) होश नहा आया। तब समीप के तालाब से कमलिनी के पत्ते में पानी लाकर उसे पानी दिया। उससे इसे होश आया। (उसने) कुमार को देखा और सोचा---यह महापुरुष कौन है ? सुकुमार देहवाला होने पर भी दृढ़ता से प्रहार करनेवाला है । असहाय होने पर भी उद्योगी है । पराक्रम में सिंह के समान है। शत्रुओं का भी मित्र है । इसकी १. पइदिओ-क.ख। २. -मणेणं । उम्मिलियं लोयणजयलं-क। ३. सत्तण कयंतो। ता आगिईओ यवगच्छामि भवियवमणेण परमेसणेण-के। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
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