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________________ [समराइच्चकहा धम्मो । ता तुम मज्न परलोयबंधवो देवया गुरू, न कोइ सो जो न होहि ति । विइयसंसारसहावस्स य मज्झं थेवमियाणि कन्नयाए पओयणं ति। पयट्टो संपयं अहं निययदेसं । ता दिट्ठो तुमं । वहियव्वो मज्झ सासणाणुराएण वावारो, थिरीकरेयन्वो धम्मे, आइसियध्वं उचियकरणिज्ज, दढव्वो निययबुद्धीए त्ति । भणिऊण निवडिओ चलणेसु। सुद्धसहावत्तणेण बहुमन्निओ ताएणं, भणिओ य णेणं-वच्छ, धन्नो तुम, जेण सयलतेलोक्कदुल्लहा लद्धा जिणधम्मबोही, पावियं परमत्थपावियत्वं । ता एत्थ अप्पमत्तेण होयत्वं ति । पडिस्सुयमणेणं । निग्गओ गेहाओ। तारण वि सयणमेलयं काऊण साहिओ एस वइयरो। सुद्धसहावयाए जंपियमणेण --उचिओ खु एसो सव्वंगसुंदरोए भतारो त्ति पडिहाइ मज्झं । संपयं तुम्भे पमाणं ति। सयणेण भणियं-तुमं चेव जाणसि ति। सुंदरो य एसो सत्थवाहपुत्तो अम्हाणं पि बहुमओ चेव । तओ विइण्णा अहं। 'वत्तो विवाहो। दीणाणाहाण कयं उचियकरणिज्जं । तओ अइक्कतेसु कइवयदिणेसु अणुन्नविय तायं समागओ निययदेसं । अइक्कतो कोइ कालो। आगो विसज्जावओ पविट्ठो य गेहं। संपाडिओ से विहवसंभवाणुरूवो उवयारो। ततस्त्वं मम परलोक बान्धवो देवता गुरुः, न कोऽपि स यो न भवतीति । विदितसंसारस्वभावस्य च मम स्तोकमिदानीं कन्य काया: प्रयोजनमिति । प्रवृत्तः साम्प्रतमहं निजदेशम् । ततो दष्टस्त्वम् । वोढयो मम शासनानुरागेण व्यापारः, स्थिरीकर्तव्यो धर्म, आदेष्टव्यमुचिकरणीयम्, द्रष्टव्यो निजबुद्धयति । भणित्वा निपतितश्चरणयोः । शुद्धस्वभावत्वेन बहुमः नितस्तातेन, भणितस्तेन . . वत्स! धन्यस्त्वम्. येन सकललोक्यदुर्लभा लब्ध! जिनधर्मबोधिः, प्राप्तं परमार्थप्राप्तव्यम् । ततोऽत्राप्रमत्तेन भवितव्यमिति । प्र तेश्रुतमनेन । निर्गतो गेहाद् । तातेनापि स्वजनमेलकं कृत्वा कथित एष व्यतिकरः । शुद्धस्वभावतया जल्पितमनेन । उचितः खल्वेष सर्वाङ्गसुन्दर्या भर्तेति प्रतिभाति मम । साम्प्रतं यूयं प्रमाणमिति । स्वजनेन भणितम्-त्वमेन जानासीति सुन्दर श्चैष सार्थ व हपुत्रोऽस्माकमपि बहुमत एव । ततो वितीर्णाऽहम् । वृत्तो विवाहः । दीनानाथाना कृतम चतं करणीयम्। ततोऽतिक्रान्तेषु कतिपयदिनेष अनुज्ञाप्य तातं सम गतो निजदेशम् । अतिक्रान्तः कोऽपि कालः। आगत आयनार्थः प्रविष्टश्च गहम। सम्पादितस्तस्य विभवसम्भवानुरूप उपवार: । अतिक्रान्तो मुझे उपदेश दिया। आपकी कृपा से मैंने जिनोक्तधर्म पाया। अत: आप मेरे परलोक के बान्धव, देव । और ऐसा नहीं जो (आप) न हों। संसार के स्वभाव को जाननेवाले मुझे इस समय कन्या से क्या प्रयोजन ? अब मैं अपने देश को जाता है । आप मुझे दिखाई दिये, शासन के प्रति अनुराग होने से आप मेरे व्यापार के वाहक बनें, धर्म में स्थिर करें, योग्य कार्यों का आदेश दें और अपने समान देखें' -- ऐसा कहकर उनके चरणों में गिर गया। शुद्ध स्वभाव वाले होने के कारण पिताजी ने बहत सम्मान किया और उससे कहा-'वत्स ! तुम धन्य हो, जिसने समस्त लोकों में दुर्लभ जिनधर्मरूपी बोधि को प्राप्त कर लिया है, जो वास्तव में पाना चाहिए उसे पा लिया है । इस विषय में अप्रमत्त रहो।' इसने स्वीकार किया। (वह) घर से चला गया। पिताजी ने भी अपने लोगों को इकटठा कर यह घटना कही। शुद्ध स्वभाव वाला होने के कारण उन्होंने कहा - 'सर्वांगसुन्दरी के लिए मुझे यह योग्य पति प्रतीत होता है। आप लोग प्रमाण हैं।' स्वजनों ने कहा---'आप ही जानें । यह वणिकपुत्र सुन्दर है, हम लोगों की भी सम्मति है।' अनन्तर मुझे दे दिया गया। विवाह हुआ। दीन और अनाथों के योग्य कार्य (दानादि) को किया । अनन्तर कुछ दिन बीत जाने पर पिताजी से अनुमति लेकर अपने देश आया। कुछ १. वित्तो-के। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
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