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________________ मत्तमोभवो] वि भाउज्जायाओ चविऊण देवलोगाओ कोसलाउरे नयरे नंदणाभिहाणस्स इभस्स देविलाए मारियाए कुच्छिसि इत्थियत्ताए उववन्नाओ ति । जायाओ कालक्कमेणं, पइट्टावियाइं च नामाइ सिरि. मई कंतिमई य। अइक्कंतो कोइ कालो। सावयकुलुप्पत्तोए य पाविओ मए जिणिवमासिनो धम्मो । पत्ता जोवणं। दिट्ठा य अहमिगो गयउरगएणं लीलावणुज्जाणाओ सभवणमुवागच्छमागी बंधदेवेण । पुच्छियं च णं 'कस्स एसा कन्नय' ति। साहियं च से बद्धणाहिहाणेणं 'संखस्स धूया सम्वंगसुंदरि' त्ति । मग्गिया णेणं। भणियं च ताएणं-जोग्गो तुम, किं तु न साहम्मिओ ति। अभिग्गहो स मज्झं 'न संजोएमि अवच्चं असाहम्मिएणं ।' बंधुदेवेण भणियं-करेहि साहम्मियं । ताएण भणियं-सुणसु जिगवरपणीयं धम्मं, पडिवज्जसु य भावओ। तओ मज्झ लोभेण गओ साहसमीवं, आणिो धम्मो, भाविओ नियडिभावेणं न उण भावओ ति। पारखं अणदाणं, पवत्तियं दाणाइयं । अइक्कंतो कोई कालो। गओ तायसमीवं । भणियं च जेणं-अज्ज, न अन्नहा तए घेत्तव्यं । धन्नो खु अहं, जस्स मे अज्जेण उवएसो दिन्नो ति । तुह पसाएण मए पाविओ जिणभासियो क्रमेण । प्रतिष्ठापितं च मे नाम सर्वाङ्गसुन्दरीति । अत्रान्तरे तेऽपि भ्रातृजाये च्युत्वा देवलोकाद् कोशलापुरे नगरे नन्दनाभिधानस्येभ्यस्य देविलाया भार्यायाः कुक्षौ स्त्रीतयोफ्पन्ने इति। जाते कालक्रमेण । प्रतिष्ठापिते नामनी श्रीमती कान्तिमती च। अतिक्रान्तः कोऽपि कालः । श्रावककलोत्पत्त्या च प्राप्तो मया जिनेन्द्रभाषितो धर्मः । प्राप्ता यौवनम् । दृष्ट। चाहमितो गजपुरगतेन लीलावनोद्यानात स्वभवनमुपागच्छन्ती बन्धुदेवेन । पृष्टं च तेन 'कस्यैषा कन्यका' इति । कथितं तस्य वर्धनाभिधानेन 'शङ्खस्य दुहिता सर्वाङ्गसुन्दरीति । मागिता ते । भणितं च तातेन--योग्यस्त्वम्, किन्तु न सार्मिक इति । अभिग्रहः स मम 'न संयोजयऽपत्यमसामिकेण' । बन्धुदेवेन भणितम्- कुरु सार्मिकम । तातेन भणित-शृणु जिनवरप्रणीतं धर्मम्, प्रतिपद्यस्व च भावतः । ततो मम लोभेन गतः साधुसमीपम्, आव णितो धर्मः, भावितो निकृतिभावेन न पुनर्भावत इति । प्रारब्धमनुष्ठानम्, प्रवर्तितं दानादिकम् । अतिक्रान्तः कोऽपि काल: गतः तातसमीपम् । भणितं च तेन-आर्य ! नान्यथा त्वया गृहीतव्यम् । धन्यः खल्वहम् , यस्य मे आर्येणोपदेशो दत्त इति। तव प्रसादे न मया प्राप्तो जिनभाषितो धर्मः । जन्म हुआ। मेरा नाम सर्वांगसुन्दरी रखा गया। इसी बीच वे दोनों भाभियाँ भी स्वर्गलोक से च्युत होकर कोशलापुर नगर में नन्दननामक धनी की देविला (नामक) स्त्री के गर्भ में कन्या के रूप में आयीं । कालक्रम से दोनों का जन्म हुआ। दोनों के नाम क्रमशः 'श्रीमती' और 'कान्तिमती' रखे गये । कुछ समय बीता। श्रावककूल में जन्म लेने के कारण मैंने जिनेन्द्रभाषित धर्म पाया। यौवनावस्था को प्राप्त हुई। यहाँ से गजपुर की ओर जाते हुए बन्धुदेव ने लीलावनोद्यान से अपने भवन को जाती हुई मुझको देखा। उसने पूछा-'यह किसकी कन्या है ?' उसने कहा- 'वर्धन नाम वाले शंख (स्तुतिपाठक) की पुत्री सर्वांगसुन्दरी है । उसने (पिताजी से याचना की और पिताजी ने कहा—'तुम योग्य हो, किन्तु साधर्मी नहीं हो । मेरा यह नियम है कि मैं (अपनी) सन्तान का सम्बन्ध असाधर्मी से नहीं करूँगा।' बन्धुदेव ने कहा-'साधर्मी बना लो।' पिताजी ने कहा-'जिनवर प्रीत धर्म को सुनो और भावपूर्वक उसे प्राप्त करो।' अनन्त र मेरे लोभ से वह साधु के पास गया, धर्म सुना और कपटपूर्वक धर्म स्वीकार किया, भावपूर्वक नहीं। उसने अनुष्ठान प्रारम्भ किया और दानादि दिया। कुछ समय बीत गया। (वह) पिताजी के पास गया और कहा-'आर्य ! आप अन्यथा न लें। मैं धन्य हैं जो कि आर्य ने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
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