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________________ [ समराइच्चकहा मया, अहो 'महत्थत्तणं, अहो सिणेहाणुबंधो, अहो लोइयत्तणं । मए सामन्नेण 'बहूदोसमेयं भयक्या भणिय' ति उवट्ठ, न उण दोसदसणेण निवारिया एसा। ता किमद्दहमेत्तेणं चेव दुच्चारिणी हवइ त्ति । तओ विलियो ख एसो। हंत असोहणं अशुचिट्ठियं ति' जाओ से पच्छायावो । पसाइया तेणं। तओ चितियं मए । एस ताव कसणधवलपडिवज्जओति । बिइओ वि एवं चेव विन्नासिओ। नवरं भणिया य से भारिया। किं बहुणा जंपिएणं; हत्थं रक्खेज्जसु त्ति जाव एसो वि कसणधवलपडिवज्जओ चेव। एत्थंतरम्मि बद्धं मए नियडिअनुभक्खाणदोसो तिनकम्म । अइक्कंतो कोइ कालो। पव्वइया अहयं सह भाउजायाहिं भाउएहि य । पालियं अहाउयं । गयाणि सुरलोयं । तत्थ वि य अहाउयं पालिऊणं पढममेव चुया मे भायरो, समुप्पन्ना इमीए चेव चंपानयरीए पुन्नयत्तस्स इन्भस्स संपयाए भारियाए कुच्छिसि पुत्तत्ताए ति। कयाइं च तेसि नामाइं बंधुदेवो सागरो य । अइक्कतो कोइ कालो । तओ चुया अहयं । समुप्पन्ना गयउरे संखस्स इम्भस्स सुहकंताए भारियाए कुच्छिसि इत्थियत्ताए ति। जाया कालक्कमेणं, पइटावियं च मे नामं सव्वंगसुंदरि ति । एत्थंतरम्मि ताओ अहो महार्थत्वम्, अहो स्नेहानुबन्धः, अहो लौकिकत्वम् ।' मया सामान्येन 'बहुदोषमेतद् भगवता भणितम्' इत्युपदिष्टम्, न पुनर्दोषदर्शनेन निवारितैषा । तत: किमेतावन्मात्रेणैव दुश्चारिणी भवतीति । ततो वीडितः (लज्जितः) खल्वेषः । 'हन्त अशोभनमनुष्ठितम्' इति जातस्तस्य पश्चात्तापः । प्रसादिता तेन । ततश्चिन्तितं मया। एष तावत्कृष्णधवलप्रतिपद्यमान इति । द्वितीयोप्येवमेव विन्यासितः । नवरं भणिता च तस्य भार्या । कि बहुना जल्पितेन, हस्तं रक्षेति यावदेषोऽपि कृष्णधवलप्रतिपद्य मान एव । अत्रान्तरे बद्धं मया निकृत्यभ्याख्यानदोष : तीव्रकर्म । अतिक्रान्तः कोऽपि कालः । प्रवजिताऽहं सह भ्र तृजायाभ्यां भ्रातृभ्यां च । पालितं यथाऽऽयुः, गताः सुरलोकम् । तत्रापि च यथायुः पालयित्वा प्रथममेव च्युतौ मे भ्रातरौ, समुत्पन्नौ अस्यामेव चम्दानगर्यां पुण्यदत्तस्येभ्यस्य शम्पाया भार्यायाः कक्षौ पुत्रतयेति । कृते च तयोर्नाम्नी बन्धुदेवः स.गरश्च । अतिक्रान्तः कोऽपि कालः । ततश्च्युताऽहम् । समुत्पन्ना गजपुरे शंखस्येभ्यस्य शुभकान्त यः भार्यायाः कुक्षौ स्त्रीतयेति । जाता कालबन्धन, लौकिकता आश्चर्यकारक है। मैंने सामान्य से 'ये बहुत सारे दोष भगवान ने कहे थे'-ऐसा उपदेश दिया था, इसके दोष देखने के कारण इसे नहीं रोका । अतः क्या इतने मात्र से (यह) दुराचारिणी हो जायेगी ?' अनन्तर यह लज्जित हुआ । हाय मैंने बुरा किया-इस प्रकार उसे पश्चात्ताप हुआ। उसने अपनी पत्नी को प्रसन्न किया। तब मैंने सोचा-ये जोड़ा मेरे प्रति काला और धवल है अर्थात भाभी मेरे प्रति अधिक श्रद्धा नहीं रखती है, भाई रखता है। दूसरे भाई के प्रति भी यही किया। उसकी पत्नी से दूसरे प्रकार से कहा - 'अधिक कहाँ से क्या, हाथ की रक्षा करो।' ये जोड़ा भी (श्रद्धा की दृष्टि से) काला और सफेद निकला। इसी बीच मैंने कपट वचन कहने के दोष से तीव्र कर्म बाँधा । कुछ समय बीता। मैं दोनों भाइयों और भाभियों के साथ प्रजित हुई। आयु पूरी कर स्वर्गलोक गये । वहाँ भी आयु पूरी कर पहले मेरे दोनों भाई च्युत होकर इसी चम्मा नगरी के पुष्यदत्त धनी (इभ्य) के शम्पा नामक स्त्री के गर्भ से पुत्र के रूप में उत्पन्न हुए । उन दोनों के नाम बन्धुदेव और सागर रखे गये। कुछ समय बीता। अनन्तर मैं (स्वर्गलोक से) च्युत हुई (और) गजपुर में 'शंख' धनी की शुभकान्ता नामक स्त्री के गर्भ में कन्या के रूप में आयी। कालक्रम से (मेरा) १. महत्वन्नुतणं (महार्थज्ञत्व)-ख । २. परलोयं-ख। ३. संपाए-ख । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
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