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________________ सत्तमो भवो] ५६३ दुस्सहं चिमं पढमं दुक्खं । ता न याणामि, किमेत्थ जुत्तयं ति। अहवा सम्भाविणी बहुबुद्धिसंगया य में नणंदा। ता तयं पुच्छिय जहाजुत्तमणुचिट्ठिस्सं ति। चितयंती अणवरयपयट्टबाहसलिला माणसदक्खाइरेएणं खणं पि अलद्धनिदा ठिया तत्थ रयणीए। पहायसमए य विद्दाणवयणकमला ओलग्गमगमन्वहंती निग्गया वासगेहाओ। दिट्ठा सा मए भणिया य-सुंदरि, कोस तुमं अज्ज अप्पोयगा विय कूमइणी पवाया दीससि । तओ परुण्णवयणाए जंपियं धणसिरीए-न याणामि अवराह, रुट्रो य मे भत्ता । कोवाइसयसंभमेण भणियं च णेणं-'नीसरसु मे गेहाओ' ति । तओ मए भणियं-सुंदरि, धीरा होहि; अहं ते भलिस्सामि । पडिस्सुयमिमीए । भणिओ य भाया- 'भो किमेयमेवं ति। तेण भणियं-अलं मे एयाए दूद्रसीलाए। दुट्रसीला ख इत्थिया विणासेइ संतई, करेइ वयणिज्जं, मइलेइ कुलहरं, वावाएइ दइयं । ता कि उभयलोयगरहणीएणं तीए परिग्गहेणं ति। मए भणियं-कहं वियाणसि, जहा एसा दुटुसोल ति । तेणं भणियं-किमेत्थ जाणियन्वं । सुयं मए तूझ चेव सयासाओ इमीए देसणापुव्वयं निवारणं । मए भणियं-अहो ते पंडियत्तणं, अहो ते वियारक्खसम्भावयिष्यतीति । न किञ्चिदेतेन । दुःसहं चेदं प्रथमं दुःखम् । ततो न जानामि किमत्र युक्तमिति । अथवा सद्भाविनी बहुबुद्धिसङ्गता च मे ननान्दा । ततस्तां पृष्ट्वा यथायुक्तमनुष्ठास्यामि इति । चिन्तयन्ती अनवरतप्रवृत्तवाष्पसलिला मानसदुःखातिरेकेण क्षणमप्यलब्धनिद्रा स्थिता तत्र रजन्याम । प्रभातसमये च विद्राणवदनकमलाऽवरुग्णमङ्गमुद्वहन्ती निर्गता वासगृहात्। दृष्टा सा मया भणिता च–सुन्दरि ! कस्मात्त्वमद्य अल्पोदकेव कुमुदिनी म्लाना दृश्यसे ? ततः प्ररुदितवदनया जल्पितं धनश्रिया-न जानाम्यपराधम्, रुष्टश्च मे भर्ता । कोपातिशयसम्भ्रमेण भणितं चानेन'निःसर मे गेहाद' इति । ततो मया भणितम्-सुन्दरि ! धीरा भव, अहं ते भलयिष्ये ( निरूपयिष्यामि)। प्रतिश्रुतमनया । भणितश्च भ्राता 'भो किमेतदेवम्' इति । तेन भणितम् - अलं मे एतया दुष्टशीलया। दुष्टशीला खल स्त्री विनाशयति सन्ततिम्, करोति वचनीयम्, मलिनयति कुलगृहम्, व्यापादयति दयितम् । ततः किमुभयलोकगर्हणीयेन तस्या: परिग्रहेणेति । मया भणितम्कथं विजानासि, यथेषा दुष्टशीलेति । तेन भणितम् - किमत्र ज्ञातव्यम् । श्रुतं मया तवैव सकाशादस्या देशनापूर्वकं निवारणम् । मया भणितम् -- अहो ते पण्डितत्वम्, अहो ते विचारक्षमता, होता। पहले यह दुःख दुःसह है, अतः मैं नहीं जानती हूँ क्या करना उचित है। अथवा मेरी ननद अच्छे भावों वाली और बुद्धिमती है अत: उससे पूछकर ठीक-ठीक कार्य करूंगी, इस प्रकार सोचती हुई निरन्तर आँसू छोड़कर मानसिक दुःख की अधिकता के कारण क्षण भर भी न सोकर उस रात बैठी रही। प्रातःकाल नींद से जागे हुए मुखकमल वाली, बीमार शरीर को धारण किये हुए (भाभी) शयनगृह से निकल गयी। उसे मैंने देखा और कहा'सुन्दरि ! अल्प जलयुक्त कमलिनी के समान क्यों म्लान (फीके मुंह वाली) दिखाई दे रही हो?' तब अत्यधिक रुआंसे मुख से धनश्री ने कहा – 'अपराध नहीं जानती हूँ और मेरे पति रुष्ट हैं । कोप की अधिकता के कारण हड़बड़ाकर इन्होंने (पति ने) कहा-'मेरे घर से निकल जाओ।' अनन्तर मैंने कहा---'सुन्दरि ! धीर होओ, मैं उससे विचारविमर्श करूंगी।' इसने स्वीकृति दी । मैंने भाई से कहा- 'हे भाई ! यह ऐसा क्या है ?' उसने कहा----'मुझे इस दुष्ट. शील वाली से क्या प्रयोजन ? दुष्टशीला स्त्री सन्तति का विनाश करती है, कलंक लगाती है, कुलगृह को मलिन करती है, पति को मार देती है। अतः दोनों लोकों के लिए निन्दित उसके स्वीकार करने से क्या ?' मैंने कहा'कैसे जानते हो कि दुष्ट चरित्र वाली है ?' उसने कहा-'यहाँ क्या जानना है ? मैंने तुम्हारे ही साथ इसका उपदेशपूर्वक निवारण सुना है ।' मैंने कहा-'ओह ! तुम्हारा पाण्डित्य, तुम्हारी क्षमला, तुम्हारा महार्थत्व, स्नेह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
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