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________________ ५६२ [ समाइचकहा 1 सोवण पवेसकालम्मि चेव जहा सो सुणेइ तहा धम्मदेसणापुव्वयं मनिया से भारिया - सुंदरि, कि बहुना जंपिणं; साडियं रक्खेज्जसु त्ति । तओ एवं ति भणिऊण पविट्ठा वासगेहं । चितियं च से भत्तारेणं । 'नूणमेसा दुच्चारिणी, कहमन्नहा मे ससा एवं जंप त्ति; ता अलमिमीए । कयं पसुत्तagi | विट्ठाय एसा सयणीए । संवाहिया से चलणा । उस्सिक्किओ दीवओ । निरूवियं तंबोलपडलयं । तओ निवज्जमाणी वारिया दइएणं 'मा निवज्जसु' त्ति । तीए चितियं । हंत किमेयं, परिहासो भविस्सइ ति । नुवन्ना एसा । उट्ठिओ से दइओ । 'कहं कुविओ खु एसो त्ति संबुद्धा एसा । भणियं च णाए - 'अज्जउत्त, किमेयं' ति । तेण भणियं न किचि, अवि य नीसरसु मे गेहाओ । तओ सा कि मए दुक्कडं कथं ति चितयंती उट्टिया सयणीयाओ । नुवन्नो एसो । थेत्रबहुचितावसाणे य उaगया से निद्दा | इयरी वि उवविट्टा मसूरए । न सुमरिओ अत्तणो दोसो । गहिया महासोएणं । fati च णाए । को मे गुणो अज्जउत्तस्स वि उव्वेवकारएणं जीविएणं । ता परिच्चयामि एवं । अहवा दुज्जणो खु लोओ । एवं पि मा अज्जउत्तस्स लाघवं संभावइस्सइति । न किंचि एएणं । मन्दिरप्रवेशकाले एव यथा स शृणोति तथा धर्मदेशनापूर्वकं भणिता तस्य भार्या - सुन्दरि ! किं बहुता जल्लिते, शाटिकां रक्षेति । तत एवमिति भणित्वा प्रविष्टा वासगेहम चिन्तितं च तस्य भर्त्रा नूनमेषा दुश्चारिणी, कथमन्यथा मे स्वसा एवं जल्पतीति ततोऽलमनया । कृतं प्रसुप्त चेष्टितम् । उपविष्टा चैषा शयनीये । संवाहितौ तस्य चरणौ । 'उज्ज्वालितो दीपः । निरूपितं ताम्बूलपटनकम् । ततो निपद्यमाना (शयाना) वारिता दयितेन 'मा निपद्यस्व' इति । तया चिन्तितम्हन्त किमेतद् परिहासो भविष्यतीति । निपन्नैषा । उत्थितस्तस्य दयितः । 'कथं कुपितः खल्वेषः' इति संक्षुषा । भणितं चानया - 'आर्यपुत्र ! किमेतद्' इति । तेन भणितम् न किञ्चिद् अपि च निःसर मे गेहाद् । ततः सा किं मया दुष्कृतं कृतम्' इति चिन्तयन्ती उत्थिता शयनीयात् । निष्पन्न एषः । स्तोकबहु चिन्तावसाने चोपगता तस्य निद्रा । इतराऽपि उपविष्टा मसूरके । न स्मृत आत्मनो दोष: । गृहीता महाशोकेन । चिन्तितं चानया । को मे गुण आर्यपुत्रस्यापि उद्वेगकारकेन जीवितेन । ततः परित्यजाम्येतद् । अथवा दुर्जनः खलु लोकः । एवमपि मा आर्यपुत्रस्य लाघवं करते समय, वह सुन ले, इस प्रकार छल से, धर्मोपदेशपूर्वक मैंने उसकी पत्नी से कहा 'सुन्दरि, अधिक कढ़ने से क्या, साड़ी की रक्षा करो।' तब 'ठीक है' - ऐसा कहकर वह (भाभी) शयनगृह में प्रविष्ट हुई । उसके पति ने सोचा निश्चित ही यह दुराचारिणी है, नहीं तो बहिन ऐसा क्यों कह रही है ? अतः इससे बस अर्थात् इससे कोई नाता नहीं । उसने सोने की चेष्टा की। यह (भाभी) शय्या पर बैठ गयी, उसके (पति के) चरण दबाये । दीपक जलाया। पान का डिब्बा देखा । अनन्तर जब सोने लगी तो पति ने मना किया--मत सोओ ! उसने सोचा हाय, यह क्या ? हँसी कर रहे होंगे। यह सो गयी। उसका पति उठ गया । 'यह क्षुब्ध क्यों हैं' ऐसा सोचती हुई यह भी क्षोभित हुई । इसने कहा - 'आर्यपुत्र ! क्या बात है ?' उसने कहा कुछ नहीं, बल्कि मेरे घर से निकल जाओ ।' तब 'मैंने क्या बुरा कार्य किया' सोचती हुई शय्या से उठ गयी। यह सो गया। थोड़ी-बहुत चिन्ता के बाद उसे नींद आ गयी। दूसरी (भाभी) भी सिरहाने बैठी रही । ( उसे ) अपना दोष याद नहीं आया। उसे बहुत अधिक शोक हुआ । उसने सोचा आर्यपुत्र को उद्विग्न करनेवाली मेरे जीने में कौन-सा गुण है ! अतः इस जीवन का परित्याग करती हूँ। अथवा लोक दुर्जन है । यों भी आर्यपुत्र का लाघव न हो। इससे कुछ नहीं १. नूणं मे भारिया रु २. संक्कियं उद्दीरियं उज्जालियं च तेत्रविअं । अंदुमियं कसिविफलं उन्मुत्तिअयं न तेअनियं ॥ ( पाइयलच्छी, १६ ।) Jain Education International ➖➖➖ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
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