SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 117
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सत्तमो भवो] ५६७ अइक्कतो वासरो, सज्जियं वासगेहं, पज्जालिया मंगलदोवा, विमुक्कं कुसुमरिसं, पत्थुया सेज्जा, उल्लंबियाई, कुसुमदामाइं, दिन्नाओ धूववट्टीओ, पणामिया पडवासा, ढोवियं उवगरणपडलयं, पविट्ठो बंधुदेवो। एत्थंतरम्मि उइयं मे नियडिबंधणं पढमं कम्मं । तओ अचितसामत्थयाए कम्मपरिणामस्स आगओ कहवि तत्थ खेत्तवालो। दिटुं च णेण तं बहुवरं। समुप्पन्ना य से चिता। पेच्छामि ताव खेड्ड। विप्पलंभेमि बंधुदेवं, मा होउ एएसि समागमो ति। अन्नपुरिसरूवेण बंसेमि अप्पाणयं बंधदेवस्स, सविसयजायावाहरणेण य जणेमि आसंकं ति। चितिऊण संपाडियं जहा चितियमणेण - दिट्टा य बंधुदेवेण वायायणनिमियवयणा ‘कहिं अज्ज एत्थ सव्वंग सुंदरि' त्ति जंपिरी दइ विगी पुरितागिई। समप्पन्नो य से वियप्पो, अवगया आलोयणा, वियम्भिया अरई, गहिओ कसाहिं । चितियं च ण - दुट्ठसीला मे महिलिया; अन्नद्दा कहं कोइ अवलोइउं एवं च वाहरिउंगओ त्ति । विगलिओ नेहाणुबंधो, जाया से अमेत्ती। एत्थतरम्मि समागया अहं वासभवणं। कयमणेण 'पसुत्तवेड्डयं । तओ ‘सामिणि निवजसु' ति मणिऊण निग्गयाओ सहीओ। विइण्णं वासरः, मज्जितं वासगृहम्, प्रज्वालिता मङ्गलदीपाः, विमुक्तं कुसुमवर्षम् । प्रस्तृता शय्या, उल्लम्बिा न कुसुमदामानि, दत्ता धूपवर्तयः, अर्पिताः पटवासाः, ढौक्तिमुपकरणपटलम्, प्रविष्टो बन्धुदेवः । अत्रान्तरे उदितं मे निकृति बन्धनं प्रथम वर्म। ततोऽचिन्यसामर्थ्यतया कर्मपरिणामस्यागतः कथमपि तत्र क्षेत्रपालः । दृष्टं च तेन तद् वधूवरम् । समुत्पन्ना च तस्य चिन्ता । प्रेक्षे तावत् कौतुकम् । विप्र नम्मयामि वन्धुदेवम्, मा भवत्वेतयोः समागम इति । अन्यपुरुषरूपेण दर्शयाम्यत्रास्मानं बन्धुदेवस्य. स्वविष जायाव्याहरणेन च जनयाम्याशङ्कामिति । चिन्तयित्वा सम्पादितं यथा चिन्तितमनेन । दृष्टा च बन्धुदेवेन वातायनन्यस्तवदना 'कुत्राद्यात्र सर्वाङ्गसुन्दरी, इति जल्पयन्ती दैविकी पुरुषाकृतिः । समुत्पन्नश्च तस्य विकल्पः, अपगता कष यः । चिन्तितं च तेन-दुष्टशाला मे महिला, अन्यथा वथं कोऽप्यवलोक्य एवं च व्याहृत्य गत इति । विगचितः स्नेहानुबन्धः, जाता तस्यामैत्री। अत्रान्तरे समागताऽहं वासभवनम् । कृतमनेन प्रसुप्तवेष्टितम । ततः 'स्वामिनि ! निपद्यस्व' इति भणित्वा निर्गताः सख्यः । वितीर्ण भवनद्वारम् । समय बीता । (वह) लेने के लिए आया और उसने घर में प्रवेश किया। उसके वैभव और कुल के अनुरूप सत्कार किया। दिन व्यतीत हुआ, शयनगृह को सजाया, मंगलदीपक जलाये, फूलों की वर्षा की। शय्या बिछायी, फूलों की मालाएं लटकायीं, धूपबती जलावी, सुगन्धित द्रव्य लगाया, उपकरणों का समूह भेंट किया, बन्धुदेव प्रविष्ट हुआ । इसी बीच कपट के कारण बाँधा हुआ मेरा पहला कर्म उदित हुआ। अनन्तर कर्मपरिणाम की अचिन्त्यता के कारण किसी प्रकार वहा क्षेत्रपाल आ गया । उसने उस वधू और वर को देखा। उसे चिन्ता उत्पन्न हुई-कोतूहल देखू, बन्धुदेव को धोखा दूं, इन दोरों का समागम न हो । अन्य पुरुष के रूप में अपने आपको बन्धुदेव को दिया और पीसी समान सागमन्दरी से व्यवहार कर शंका उत्पन्न करूँगा-ऐसा सोचकर उसने जैसा सोचा था, वैमा किया। बन्धुदेव ने खिड़की से झांक कर देखा - कोई दैवी पुरुषाकृति कह रही है - 'आज यहाँ सर्वांगसुन्दरी कहाँ ?' उसके मन में विकल्प हुआ, विचार जाता रहा, अरति बढ़ गयी । (बन्धुदेव को) कष यों ने जकड़ लिया। उसने सोचा-मेरी स्त्री दुष्ट शीलवाली है। नहीं तो कोई देखकर ऐसा कहकर कैसे बला गया? उहा स्नेह सम्बन्ध टुट गया, उसके प्रति अमैत्री उत्पन्न हो गयी। इसी बीच मैं शयनागार में अायी। १. परिसागिती-कम्, पसनचेट्टयं-ख । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy